ज्योतिषाचार्य पंडित नरेंद्र नागर के मुताबिक शिव महापुराण में भगवान शिव के अनेक अवतारों में से एक पिप्पलाद अवतार का वर्णन भी किया गया है। शिव के पिप्पलाद अवतार महर्षि के पुत्र थे. महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी सुवर्चा दोनों ही भगवान शिव के परम भक्त थे। यही कारण था कि उनके यहां भगवान शिव ने पिप्पलाद के रूप में जन्म लिया। उनका जन्म पीपल के पेड़ के नीचे हुआ इसलिए ब्रह्माजी ने उनका नाम पिप्पलाद रखा।
असुरों से संघर्ष के लिए वज्र बनाने के लिए महर्षि दधीचि के शरीर की अस्थ्यिां ली गईं थीं. महर्षि दधीचि के वियोग में उनकी पत्नी सुवर्चा भी पिप्पलाद को जन्म देने के बाद सती हो गईं. पिप्पलाद जब बडे हुए तो जन्म से पूर्व ही पिता के चले जाने और जन्म होते ही माता के भी सती होने की बात जानकर दुखी हुए. अपने बचपन में ही अनाथ होकर कष्ट झेलने का कारण उन्होंने देवताओं से पूछा तो उन्हें बताया गया कि शनि के प्रकोप के कारण ऐसा हुआ है। यह सुनकर पिप्पलाद बड़े क्रोधित हुए.
ज्योतिषाचार्य पंडित दिनेश शर्मा बताते हैं कि पिप्पलाद ने कहा कि शनि को इतना अहंकार है कि वह नवजात शिशुओं को भी नहीं छोड़ता है। उन्होंने अपने ब्रह्मदंड से शनि पर प्रहार कर किया जो उनके पैर पर लगा जिससे शनिदेव लंगड़े हो गए। देवताओं ने पिप्पलाद मुनि से शनिदेव को क्षमा करने की विनय की. देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को छोड तो दिया पर यह वजन लिया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की उम्र तक किसी को कष्ट नहीं देंगे। यही वजह कि बाल्यावस्था में शनि की साढेसाती भी प्रभावी नहीं होती.