दरअसल, पुलवामा में सीआरपीएफ के जवानों पर आत्मघाती हमले के बाद देशभर में लोगों का गुस्सा उबाल पर है। नेता भी जवानों की शहादत पर आंसू बहा रहे हैं। लेकिन कुछ दिन बाद भी क्या इन परिवारों के प्रति सरकारों और नेताओं की ये सहानुभूति कायम रह पाएगी? क्या इन परिवारों को भी वे सभी सुविधाएं मिल पाएगी जो युद्ध क्षेत्र या आतंक प्रभावित क्षेत्रों में शहादत पर मिलती हैं? इस तमाम सवालों के साथ अर्द्धसैनिक बलों के जवानों की बरसों से लम्बित मांग पर फिर चर्चा शुरू हो गई है। हालांकि इस मुद्दे पर अर्द्धसैनिक बलों का कोई रिटाटर्ड अधिकारी तक ‘अभी सही मौका नहीं है…’ कहते हुए कुछ बोलना नहीं चाहता, लेकिन इनके मन में दबा दर्द जरूर ताजा हो गया है।
हमारे देश में सेना के जवानों के साथ अर्द्धसैनिक बलों के जवान भी विषम भौगोलिक परिस्थितियों में देश के सेवा में जुटे रहते हैं। अंतरराष्ट्रीय सीमा पर अर्द्धसैनिक बल बीएसएफ निगरानी करती हैं। सीमा के पीछे सेना बैरक में रहती है, लेकिन जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के आतंक प्रभावित इलाकों और देश के नक्सल प्रभावित हिस्सों में तैनात अर्द्धसैनिक बलों व सेना के जवानों को एक सी विषम परिस्थितियों में ड्यूटी करनी पड़ती है। भले ही दोनों ही फोर्सेज के जवानों की ड्यूटी एक सी होती है, लेकिन सेवा शर्तों के मामले में अर्द्धसैनिक बलों के जवानों को प्रशासनिक स्तर पर असमानता का सामना करना पड़ता है।
बात जम्मू-कश्मीर जैसे आतंक प्रभावित इलाकों में शहादत की आती है, तब भी ये असमानता पीछा नहीं छोड़ती। जहां तक इन्हें शहीद का दर्जा देने का सवाल है तो सरकार खुद संसद व सुप्रीम कोर्ट तक में कह चुकी कि उसके कागजों में शहीद की कोई परिभाषा ही नहीं है। लेकिन बात समान ड्यूटी पर समान सुविधाओं की आती है तो सरकार भी निशब्द हो जाती है।
ऐसा नहीं है कि अर्द्धसैनिक बलों को जवान मातृभूमि की रक्षा में पीछे रहते हैं। एक आंकड़ा है 2015 तक का है। सुप्रीम कोर्ट में अर्द्धसैनिक बलों के अधिकारियों की ओर से दायर एक याचिका में इसका उल्लेख है, जो कहता है कि आजादी के बाद से 2015 तक देश की सशस्त्र सेनाओं के 22 हजार 500 जवानों-अधिकारियों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया। तो इसी अवधि में अर्द्धसैनिक बलों के 31,895 जवानों ने भी प्राणों की आहूति दी विभिन्न ऑपरेशन्स के दौरान, लेकिन शहादत के बाद इन्हें भी विशेष सुविधाएं देने का प्रावधान तक गृह मंत्रालय ने नहीं कर रखा है। किसी बड़ी घटना के बाद राज्य सरकारें जरूर अपने अपने हिसाब इन्हें भी शहीदों का पैकेज दे देती है।
शहीद होने वाले सेना के जवानों को मिलने वाली पेट्रोल पम्प और गैस एजेंसी आवंटन में प्राथमिकता, जमीन या मकान, विधवा को रिटारमेंट की आयु तक पूरा वेतन व इसके बाद पेंशन, परिवार के सदस्यों को रेल व हवाई किराए में 50 फीसदी तक की छूट और शहीदों के बच्चों के लिए शैक्षणिक संस्थाओं व नौकरियों में आरक्षण जैसी सुविधाएं, अर्द्धसैनिक बलों को भी देने की मांग लम्बे अरसे से की जा रही है। सरकार ने नहीं सुनी तो रिटायर्ड अफसरों-जवानों के संगठनों ने अदालत का दरवाजा भी खटखटा रखा है। इतना ही नहीं सातवें वेतन आयोग ने अर्द्धसैनिक बलों के जवानों को भी शहीदों वाली सुविधाएं देने की सिफारिश की है, लेकिन सरकार अभी इस पर कोई फैसला नहीं कर पाई है।
क्या कहते हैं एक्सपर्ट्स
बीएसएफ के एक रिटायर्ड डीआईडी ने पहचान गुप्त रखने की शर्त पर ‘पत्रिका’ से बात की। उनका कहना था कि पुलवामा अटैक के शहीदों को शहीद का दर्जा तो अलग बात है, लेकिन क्या इनके परिजनों को विशेष पेंशन भी मिल पाएगी, इस पर भी संदेह है। वे कहते हैं कि पैरा मिलिट्री फोर्सेज के जवानों के लिए आतंकी हमलों में शहादत पर एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी पेंशन का प्रावधान तो है, लेकिन प्रक्रिया इतनी जटिल है कि पूरा फायदा बहुत कम परिवारों को मिल पाता है। ऐसी पेंशन पर हक जताने के लिए पहले इन्क्वायरी होती है। उसकी रिपोर्ट के आधार पर तय होता है कि फुल-पे मिलेगी या कोई विशेष पेंशन।
बीएसएफ के एक रिटायर्ड डीआईडी ने पहचान गुप्त रखने की शर्त पर ‘पत्रिका’ से बात की। उनका कहना था कि पुलवामा अटैक के शहीदों को शहीद का दर्जा तो अलग बात है, लेकिन क्या इनके परिजनों को विशेष पेंशन भी मिल पाएगी, इस पर भी संदेह है। वे कहते हैं कि पैरा मिलिट्री फोर्सेज के जवानों के लिए आतंकी हमलों में शहादत पर एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी पेंशन का प्रावधान तो है, लेकिन प्रक्रिया इतनी जटिल है कि पूरा फायदा बहुत कम परिवारों को मिल पाता है। ऐसी पेंशन पर हक जताने के लिए पहले इन्क्वायरी होती है। उसकी रिपोर्ट के आधार पर तय होता है कि फुल-पे मिलेगी या कोई विशेष पेंशन।
अर्द्धसैनिक बलों के जवानों को यह दर्द भी है कि 2004 के बाद सेवा में आने वालों को तो कंट्रीब्यूटरी पेंशन ही मिल पाएगी। ऑपरेशनल एरिया में तैनाती पर मिलिट्री सर्विस पे का मामला भी पहले से अटका हुआ है। पुलवामा अटैक में जान गंवाने वाले जवानों की ही बात करें तो अभी ये भी तय नहीं है कि इन्हें ‘व्हाइल इन सर्वि
स’ यानी सेवारत माना जाएगा या व्हाइल ऑन ड्यूटी यानी सेवा पर। मौजूदा नियमों के मुताबिक इसके आधार पर ही इनके परिजनों को पेंशन का फैसला भी होगा। ये अलग बात है कि विभिन्न राज्य सरकारों ने जरूर अपने अपने यहां के जवानों के लिए विशेष पैकेज की घोषणा की है।
स’ यानी सेवारत माना जाएगा या व्हाइल ऑन ड्यूटी यानी सेवा पर। मौजूदा नियमों के मुताबिक इसके आधार पर ही इनके परिजनों को पेंशन का फैसला भी होगा। ये अलग बात है कि विभिन्न राज्य सरकारों ने जरूर अपने अपने यहां के जवानों के लिए विशेष पैकेज की घोषणा की है।
सैन्य बलों में थलसेना, वायुसेना और नौसेना रक्षा मंत्रालय के अधीन आते हैं और सीआरपीएफ, बीएसएफ, एसएसबी, सीआईएसएफ जैसे अर्द्धसैनिक बल गृह मंत्रालय के अधीन काम करते हैं। जम्मू-कश्मीर जैसी जगहों पर तो ड्यूटी का भी कोई फर्क नहीं है। आतंकी हमलों का शिकार फौजी भी हुए हैं और केंद्रीय पुलिस बलों के जवान भी लेकिन ब्यूरोक्रेसी अब भी अर्द्धसैनिक बलों के लिए शहीदों वाली सुविधाओं पर फैसला नहीं कर रही। अर्द्धसैनिक बलों से जुड़े लोगों का कहना है कि पुलवामा हमले के बाद सरकार सातवें वेतन आयोग की सिफारिश को मानकर इस पर फैसला कर दे तो अर्द्धसैनिक बलों की बरसों पुरानी आस पूरी हो सकेगी।