scriptकहानी – घर है आपका | Story - ghar hai aapka - Author - Jasmeet Kaur | Patrika News

कहानी – घर है आपका

locationजयपुरPublished: May 09, 2018 06:41:54 pm

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dinesh

क्या है मेरा अस्तित्व इस पृथ्वी पर? कभी परिस्थितियां ऐसी भी प्रतिकूल होंगी, जो मेरा सर्वस्व छिन्न-भिन्न कर देंगी। पर हरि इच्छा…

Ghar ha aapka
कहानी – घर है आपका
जसमीत कौर

सोचा तो ना था कभी, जिंदगी ऐसे किसी मोड़ पर ले आएगी, जब मैं ये सोचने पर विवश हो जाऊंगी कि मेरा वजूद क्या है? क्या है मेरा अस्तित्व इस पृथ्वी पर? कभी परिस्थितियां ऐसी भी प्रतिकूल होंगी, जो मेरा सर्वस्व छिन्न-भिन्न कर देंगी। पर हरि इच्छा!

बात कहां से प्रारम्भ करूं ये मेरी समझा में नहीं आ रहा है, क्योंकि जब मेरे अस्तित्व पर ही प्रश्न उठाए जा रहे हैं, तो शायद मुझो, मेरा परिचय देने का कोई लाभ नहीं है। परन्तु मैं फिर भी अपनी व्यथा तो बयां कर ही सकती हूं ना। हम शुरू से ही सुनते आए थे कि स्त्री को अपने जीवन में अनेक किरदारों को निभाना पड़ता है। उसे बहुत कुछ अपने अंदर समेटना पड़ता है। और धीरे-धीरे ये सत्य भी उजागर होता प्रतीत होने लगा। पहले पुत्री बनकर परिवार में जन्म लिया। स्वयं को बहुत भाग्यशाली मानती थी कि मैं एक स्त्री हूं। अपने स्त्री होने पर मुझो अभिमान था। गांव में छोटी आयु में ही विवाह कर दिए जाते थे। मुझो पढऩे का काफी शौक था। मैं आगे अपने अध्ययन को जारी रखना चाहती थी, परन्तु गांव की प्रथाओं के आगे विवश मैं भला क्या बोलती। अपने पिताजी और उस समय प्रचलित प्रथाओं का मान भी तो रखना था मुझो। मेरा विवाह शहर में तय हुआ। मैं बहुत खुश थी कि गांव से प्रथम लड़की मैं ही थी, जिसका विवाह शहर में हुआ था।

नए जीवन की शुरुआत हुई। बहुत प्रसन्न थी मैं। नर्सरी के पौधे को नवीन जमीन मिलने जैसे। मेरे पति रविन्द्र बहुत सुलझो हुए इंसान थे। उनका स्वयं का व्यवसाय था। उन्होंने सदैव मेरी हर बात का मान एवं भान रखा। विवाह के उपरान्त मैंने अपने अध्ययन को जारी रखने का निवेदन किया उनसे। उन्हाने सहर्ष इसकी स्वीकृति भी मुझो दी। हालांकि मेरी अम्मा एवं बाऊजी मेरे इस निर्णय से संतुष्ट नहीं थे, परन्तु मेरी सासु मां एवं ससुर जी ने मेरी इस पहल को सराहनीय बताया।

धीरे-धीरे मैं अपने अध्ययन पर ध्यान देने लगी। मेरी स्नातक शिक्षा पूरी होने को थी। सरकारी नौकरी के लिए कई भर्तियां निकल रही थीं। ससुराल वालों की बाकायदा अनुमति ले मैंने भी कई बार प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग लिया। अन्तत: मुझो सफलता मिल ही गई। मेरी खुशी का तो जैसे कोई ठिकाना ही नहीं था। जैसे पंख ही लग गए थे मुझो। रविन्द्र एवं मेरी ये प्रतीक्षा समाप्त हुई। हमारी मेहनत रंग लाई। मेरे घर-परिवार मैं प्रथम स्त्री थी, जिसकी नियुक्ति राजकीय सेवा में हुई थी। सब कुछ जैसे विधाता की इच्छा के अनुरूप ही हो रहा था, लगा सुख का प्याला मेरे हिस्से आया है।

अचानक! एक दिन रविन्द्र को दिल का दौरा पड़ा। और इससे पहले कि हम सब कुछ संभलते, रविन्द्र ने मेरे आंलिगन में ही दम तोड़ दिया। ये सब कुछ ऐसा था जैसे ईश्वर ने मुझो क्षण भर की खुशी देकर, मुझासे हमेशा के लिए मुंह ही मोड़ लिया। कुछ दिन तो धुंध से लगे पर महीने भर में ही साफ नजर आने लगा।

सब कुछ बदल गया। संबंधों के मायने ही धीरे-धीरे समाप्त होने लगे। रविन्द्र के माता-पिता ने रविन्द्र के चल बसने के बाद अपना अच्छाई का चोगा त्याग कर असली रंग दिखाना प्रारम्भ कर दिया। मुझो कोसने लगे ‘पहले तो तूने सारा समय पढऩे एवं अपने स्वार्थ को सिद्ध करने में व्यतीत कर दिया। मेरे बेटे को कोई सुख नहीं दिया तूने, अब तुझो आखिर उससे छुटकारा मिल ही गया।’ और ना जाने क्या-क्या कहकर वे मुझो प्रताडि़त करने लगे। मैं रोज कार्यालय से वापस लौटती और उनका फिर से वही सब बातें लेकर बैठ जाना।

विवाह के प्रारम्भ में तो मुझो ऐसा लगता था जैसे मैं अपने मायके को छोड़ अपने दूसरे मायके में आई हूं। लाड़, प्यार। परन्तु जैसा कि सुनते आए ही थे कि एक बहू कभी बेटी नहीं बन सकती, वो मुझो रविन्द्र के जाने के बाद यहां प्रतीत होने लगा। मैं निरन्तर कार्यालय जाती, वहां मेरी सभी से अच्छे से बात होती, मेरे बॉस राजीव जी, बहुत अच्छे व्यक्ति थे। वे स्त्रियों का बहुत ही आदर करते थे।

कभी काम के सिलसिले में अक्सर उनका घर पर टेलीफोन आता ही रहता। मेरे एवं राजीव के मध्य रोज की वार्तालाप मेरे सास-ससुर को बहुत खटकती, कभी-कभी तो वे राजीव जी और मुझा पर कटाक्ष भी करते, परन्तु मैनें सदैव उन्हें अपने माता-पिता से भी अधिक सम्मान दिया, परन्तु न जाने क्यूं एक दिन तो उन्होनें सारी सीमाओं को लांघ दिया।

उन्होने राजीव जी का नाम मेरे साथ जोड़कर, मेरे चरित्र को इस कदर दागदार किया कि मेरे मन को जो गहरे आघात लगे, उसकी कल्पना भी आप नहीं कर सकते। उन्होंने मुझो अत्यधिक लज्जित व अपमानित किया। उनके शब्द भेदी बाणों ने मेरे कलेजे को अंदर तक बींध दिया।

तब मुझो पहली बार ये अहसास हुआ कि ईश्वर शायद स्त्री होना एक बहुत बड़ा अभिशाप है। विधवा स्त्री होना तो उससे भी बड़ा अभिशाप है। मैं स्वयं को कोसने लगी कि क्यूं मुझो स्त्री बनाया। एक समय था जब मुझो अभिमान था अपने स्त्री होने का। परन्तु आज मेरे चरित्र पर ही सवाल उठाए जा रहे हंै। क्या मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है अपने पति के बिना। क्या समाज में मुझो सिर उठाकर चलने के अधिकार तक नहीं।

मैंने तो जीने की सारी उम्मीदों को ही छोड़ दिया था, कि एक उबकाई के साथ अचानक एक प्रकाश की किरण जीवन में आई। मुझो अपने जीवन जीने का मकसद पुन: मिलता हुआ प्रतीत हुआ। आप समझाना। रविन्द्र तो चले गए थे, परन्तु हमारे प्रेम की निशानी छोड़ गए थे, मेरी पवित्र कोख में। मैं टूट ही चुकी थी कि स्वयं को समेटने का अवसर ईश्वर ने ही मुझो प्रदान किया। मुरझााए हुए पौधे को जैसे प्रकाश की कुछ किरणें एवं जल की कुछ मात्रा मिल गई हों।

मैंने सोचा कि यह सुनकर ससुराल में सभी बहुत प्रसन्न होंगे और शायद उन्हें भी मुस्कुराने का एक अवसर मिलेगा। मैं डॉक्टर के यहां से जल्दी घर पहुंची, और आते ही सबको यह शुभ सूचना दी।

मेरे यह कहते ही मेरी सासुमां ने मुझो एक जोरदार थप्पड़ रसीद कर दिया, कहने लगी कि ‘नीच, कुल्टा किस जन्म का बदला ले रही है हमसे। पहले तो पराए पुरुष से संबंध और अब उसके पाप को हमारे घर का चिराग बता रही है। शर्म नहीं आती तुझो! क्या जरा भी ईश्वर का भय नहीं है तुझो। निकल जा यहां से, अब इस घर में तेरे लिए कोई स्थान नहीं है।’
मैं प्रताडित सी बाहर धकेल दी गई। अपने ही घर से, अपने पति के घर से, अपनी कोख में अपने पति का अंश लिए। सास-ससुर के बेटे का अंश लिए उनका वंश लिए। तभी विचार आया कि माता-पिता के पास ही चली जाऊं, परन्तु विवाह होने से कुछ समय से पूर्व ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि हमारे यहां से विदा होने के बाद बेटी की ससुराल से ही अर्थी उठनी चाहिए। बिना बुलाए मर्जी से पीहर नहीं आना। सुख हो या दु:ख तू यहां लौट कर नहीं आएगी।

अब किसके घर जा सकती थी। रविन्द्र के जाने के बाद ससुराल भी कहां था मेरा। उन्होंने तो पहले ही इतना अपमानित किया था मुझो कि वहां पुन: जाने का तो कोई औचित्य ही नहीं शेष था।

बस अब कहने को कुछ नहीं बचा था, लग रहा था कि क्यूं इस देह का बोझा मैं ढो रही हूं? क्यूं व्यर्थ ही आने वाली खुशियों की प्रतीक्षा कर रही हूं?


सोचा था कि अपने अंश के सहारे अपना पूरा जीवन उसके लिए गुजार दूंगी। मेरे अस्तित्व पर सवाल उठाए जाने तक तो ठीक था, परन्तु इसमें उस निरपराध का कहां कोई दोष था। उसके दुनिया में आने से पूर्व ही उसके अस्तित्व पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं। ये आघात, असहनीय था मेरे लिए। मैं स्वयं को धिक्कारने लगी कि मैं अपनी संतान के अस्तित्व की रक्षा भी ना कर पाऊंगी।

उस दिन मैं ऑफिस भी नहीं गई। राजीव जी ने मुझो फोन भी किए, परन्तु मैनें उन्हें कोई जवाब तक नहीं दिया। दसों दिशाओं से निराशा पाकर मैंने आत्महत्या करने का विचार बना लिया था। रेल की पटरियों की ओर बदहवास सी बढ़ती हुई, मैं इस प्रयास में सफल भी हो जाती कि मेरे उनके द्वारा किए गए फोन का जवाब न दिए जाने से चिंतित, राजीव जी वहां से गुजर रहे थे, उन्होंने मुझो देख लिया एवं मेरा हाथ पकड़कर मुझो रोक लिया। मुझासे पूछने लगे कि ऐसा भी क्या हो गया लता कि तुम इस तरह अपने जीवन को समाप्त करने जा रही थी?

मैनें कहा ‘सर! आज आपने मेरे जीवन को क्यूं बचाया? क्यूं आपने मुझो रोक लिया? मुझो जीने का कोई अधिकार नहीं है, शर्म आती है मुझो स्वयं पर कि मैंने स्त्री बनकर जन्म लिया। वो अभागन स्त्री जिसका कोई अस्तित्व नहीं है। समाज में उसका कोई स्थान नहीं है। विधवा होने के बाद उसका कोई घर नहीं है। वो समाज में दर-दर की ठोकरें खाने के लिए विवश है। पति के जाने के बाद उसे अपने घर से बेदखल कर दिया जाता है, जैसे कि वो उसका घर तब तक ही हो, जब तक उसका पति जीवित है। उसके पति के मरणोपरान्त आखिर कौन-सा घर है उसका। किसके सहारे जीवन व्यतीत करे वो, किसके समक्ष अपना दु:खडा रोए, और तो और अपनी संतान को दुनिया में आने से पूर्व कैसे हर लांछन और अपमानों से बचाए।’
बस फिर क्या था, उन्होनें कुछ नहीं देखा और कहने लगे ‘अब तुम यहां अपने ऑफिस के गेस्ट हाऊस में रहोगी।’

मैंने कहा ‘सर! नहीं समाज में आपकी छवि खराब हो सकती है। जिस प्रकार मेरे अस्तित्व, मेरी पवित्रता पर कीचड़ उछाला जा रहा है। ऐसा मैं नहीं चाहती। समाज में आपकी छवि धूमिल हो।’

उन्होनें उस क्षण मेरी एक ना सुनी और मुझो जबरन अपनी कार में बैठाया और ऑफिस के गेस्ट हाउस ले गए। राजीव जी ने मुझो कहा कि तुम फ्रेश हो जाओ, फिर हम साथ में भोजन करेंगे। मैंने कहा कि मुझो भूख नहीं है। तो उन्होंने कहा कि अब तुम्हारे जीवन के साथ एक नन्हीं सी जान का जीवन भी जुड़ चुका है। तो तुम्हें अपने साथ-साथ उसका भी पूरा ध्यान रखना होगा। बस ये सुनते ही, कुछ संभलते हुए मैंने कुछ समय पश्चात् भोजन प्रारम्भ किया।

अगले ही दिन मंैने राजीव जी से कहा, ‘आपने मेरे लिए जो किया उसके लिए बहुत- बहुत धन्यवाद, परन्तु अब मैं यहां और रहकर आपको कष्ट नहीं दे सकती। अपनी छवि के साथ आपकी प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाने का कारण भी नहीं बन सकती। तो कृपया मुझो आज्ञा दें। राजीव जी ने मुझो रोकने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु इस निर्णायक घड़ी में मैंने विनम्रता से उनसे विदाई ले ली।

फिर मैंने अपने भीतर की पीड़ा को समेटते हुए, जरा संभलकर ये सोचा कि, आज जो मेरे साथ हुआ, कल हर घर में किसी दूसरी महिला के साथ होगा। तो मेरा ये कत्र्तव्य बनता है कि मैं स्वयं को जीने का एक और अवसर तो दूंगी ही, साथ ही मेरे जैसी अन्य महिलाओं के लिए भी मैं ऐसे प्रयत्न करूंगी, जिससे समाज मे वे भी अपनी पहचान बना सकें एवं उनके अस्तित्व पर भी कोई प्रश्न ना उठाए।

मंैने मन बनाया कि मैं अपनी संतान को इस दुनिया में अवश्य लेकर आऊंगी एवं उसकी परवरिश एवं भरण-पोषण अच्छे से करूंगी। उसे शिक्षित बनाऊंगी।


मैंने किराए का एक मकान ले ‘एकल माता गृह’ प्रारम्भ किया, जिसमें समाज में प्रताडि़त ‘एकल माताओं’ के लिए स्थान था।

समय बीतने लगा, समयानुसार मेरे जीवन में एक नन्हीं सी कली ने अपनी सुगंध महका दी। मैं उसे पाकर जैसे पुन: जीवन्त हो उठी। उसने मेरे जीवन के मायने ही बदल दिए।
एक कमरे से प्रारम्भ किया हुआ गृह, आज एकल माताओं एवं उनकी संतानों का केन्द्र बन चुका है। राजीव जी, ने मेरा इसमें पूर्ण सहयोग किया। देखते ही देखते मेरी बेटी नित्या, मेरे नेत्रों के समक्ष कब कली से एक सुंदर सा पुष्प बन गई मुझो, इसका भान तक नहीं हुआ। वह भी मेरे इस कार्य में पूर्ण सहयोग देती है। मैंने इस गृह की नींव अपने पति स्वर्गीय रविन्द्र के नाम से रखी।

मुझो विश्वास है आज उनकी आत्मा बहुत प्रसन्न होगी एवं अपनी पुत्री को देखकर भी वे बहुत हर्षित होंगें। शायद मुझो एवं मेरे जैसी कई ‘एकल माताओं’ को तो घर मिल गया है।
परन्तु आज कोई भी मुझा जैसी परिस्थिति से गुजरी, स्वयं से पूछे आखिर कौनसा घर है मेरा?
तो मैं गर्व से कहूंगी ‘आओ, मेरे पास ये ‘गृह’ और मेरा हृदयागंन घर है ना आपका। घर है ना आपका।’
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