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कहानी – मेरा गांव, मेरी मां

locationजयपुरPublished: May 09, 2018 06:28:20 pm

Submitted by:

dinesh Dinesh Saini

बचपन की स्मृति, लड़कों के कांच के कंचे और लड़कियों के लिए लाख के गट्टे पचेटे…

Shri Gopal Kabra
कहानी – मेरा गांव, मेरी मां
डॉ. श्रीगोपाल काबरा

गांव की हवेली। सामने वाली गली के कोने पर लखारे का घर और काम करने के चबूतरे पर खुलता कमरा (दुकान), आज भी वैसा ही है जो 80 साल पहले मेरे जन्म के समय था। दस साल पहले गांव गया था तो पोते-पोतियों को दिखाने के लिए खेलने वाले लाख के रंग बिरंगेे गट्टे बनवा कर लाया था। बचपन की स्मृति, लड़कों के कांच के कंचे और लड़कियों के लिए लाख के गट्टे पचेटे।

बचपन और मां से जुड़ी बातें सिर्फ यादें बनकर रह गई हैं। हवेली में साळ (छोटा कमरा) के बाहर तिबारे में पीढ़े पर बैठी मां और सामने बैठी लखारण काकी, उम्र में मां से थोड़ी बड़ी।
‘सेठाणी, सुहाग का चूड़ा को नेग एक सौ एक रिप्या ल्यूंगी।’

‘जा, बैठक में सेठजी से लेलै।’
‘सेठाणी, सुहाग का चूड़ा को नेग मांग्यो है, मोल नीं। मैं न सेठजी सैं ल्यूं न मुनीमजी से। नेग तो थारा हाथ सैं ही ल्यूंगी।’
कलकत्ते परणी हुई घर की लड़की पीहर आई है। पीहर में बिना घूंघट, खुले मुंह घूमना बड़ा सुहाता है। लखारण काकी के चबूतरे पर बैठते हुए, ‘काकी धोक।’
लकड़ी के हत्थे पर लाख के लोथड़े को रंगीन लाख लगा, उसे अंगारों पर गरम कर उसके गरम पिघले सिरे से तार थिरपती काकी। चम्पई रंग, सुन्दर नाक नक्श, अंगारों की आंच से लाल दिपदिपाता चेहरा। मुस्कुरा कर बेटी को देखा और बोली, ‘जीवती रह। कद आई?’

‘तीन दिन होग्या।’
‘अब’कै तो बोळा बरसां पाछै आई।’
‘हां, ढाई साल पछै।’
‘कंवरजी भी आया है के?’
‘नहीं, भाई ले’ण गयो हो।’
‘जद ही, हेली सैं जवांई पांवणा का गीत कोनी सुणाई पड़्या।’
‘काकी, दोन्यूं हाथां की चूड़्यां तो बणा दे, कमेड़ी और फालसाई रंग की।’
‘था’रै सासरै तो हीरां को काम है न। तूं तो हीरा की पै’र राखी है।’

‘काकी, आं में बो कवंळापणे कठै। अर काकी, साबू’आं की सान्ती, बा भी कलकत्ते मैं ही है। बा मोरपंखी और तीतरपंखी रंग की मंगाई है। म्हारो ही नाप है।’ और एक चूड़ी खोल कर दे दी।
काकी ने चूड़ी हाथ में ली, उंगलियां डाल कर नाप देखी, और चूड़ी लौटाते हुए बोली, ‘बणा देस्यूं, सोफियाना रंग है, थोड़ो टेम लागसी।’
‘ठीक है, अभी तो 15 दिन अठै ही हूं’ और जाते-जाते बोली, ‘काकी, बो मळाई बरफ हाळो दाद्यो आवै है के?’ गांव में वह दाद्या-भाई, दादा का अपभ्रंश के नाम से ही जाना जाता था।
काकी, ‘हां, आवै तो है, फेरी लगातो।’

‘बी’नै भेज जे।’
दाद्या। सर पर लकड़ी की एक पेटी। कंधे पर लाल गमछा। बगल में लोहे की पतली पट्टियों का बना पेटी रखने के लिए स्टूल। उसका एक पांव जन्म से ही टेढा, लंगड़ा कर चलता है। अमूमन हवेली के बाहर बरगद के गट्टे पर पेटी रख आवाज लगाता, ‘मळाई बरफ मळाई बरफी!’ आज दरवाजे पर ठाकर से ‘कलकत्ता हाळी बाई बुलायो है’ कह कर हवेली में आया है। आहट होते ही बच्चे आ गए हैं, कलकत्ते वाली बिटिया के साथ।

दाद्या पेटी का ढक्कन खोलता है। उसमें सिलिंडर के आकार का जमा हुआ मलाई बर्फ है। बर्फ के सिलिंडर को गरम नमदे की मोटी पट्टी से लपेट कर ढक रखा है। इससे राजस्थान की गर्मी में भी बर्फ पिघलती नहीं।

उसका ऊपरी सिरा खोलता है। दाएं हाथ में चाकू लेता है। कंधे पर रखे गमछे से पोंछता है। बाएं हाथ से रखे हुए बड़ के पत्तों में से एक निकालता है, गमछे से पोंछता है। चाकू से बर्फ की कतरनें निकाल कर पत्ते पर रखता है। छोटी सी तराजू निकाल उसमें तोलता है। चाकू से बर्फ की कतरनों को आड़ी तिरछी काटता है। बड़ के एक पत्ते के चाकू से चार टुकड़े कर एक चम्मच की तरह रख कर देता है। अपनी बारी आते ही यह करते देख बच्चे का मुंह लार से भर जाता है, मलाई बर्फ का स्वाद कई गुणा बढ़ जाता है, सदा याद रहता है।

आइसक्रीम या सोफ्टी खाते वक्त दाद्या याद आता है। याद कर मुंह में पानी भर जाता है। आइसक्रीम स्वादिष्ट तो लगती है पर जैसे जीवनशैली में खोखलापन आ गया है वैसे ही लगता है मलाई बर्फ खोखली हो गई है- हवा ज्यादा तत्व कम।

बड़ के पत्ते से याद आया अल सुबह मां का बड़ के पत्ते पर लूण्या घी (ताजा मक्खन) और मिश्री देना। खुद 80 साल का हो गया हूं। मालूम नहीं क्यों, मां बहुत याद आती है। अल सुबह बिलोना करती मां। घर्र-घर्र की आवाज। उसके घुटने पर जा कर लेटना। बिलोते हाथों की हरक से झाूले का अहसास। बिलोने से छिटकते छाछ के छींटे, उसकी महक। मक्खन निकाल कर इक_ा करना। बड़ के पत्ते पर रख उसे देना, खाना, पत्ते को जीभ से चाटना। बड़ के पत्ते का खुरदरा मक्खनियां अहसास। लूण्या घी की ममतामयी लूणायात का कोई सानी नहीं। मन में हूक उठती है। लूण्या घी में मां का अहसास, उसके आंचल की महक है। बुढापे में पुरानी स्मृतियां अपनी परिवेशीय समग्रता के साथ साकार और सजीव हो उठी हैं।

मां बहुत याद आती है। चक्की चलाती मां। हरजस गाती मां। पूजा पाठ कर तुलसी चरणामृत के लिए आवाज देती मां घी का मोयन दे हल्की आंच में करारा मंडक्या (साटन की मोटी रोटी) सेकती मां। दुपहर का कलेवा देती मां। सांझा को दिया बाती के समय तुलसी चौरा पर दिया जलाती मां। सीढियां चढ़ते हुए ‘हे राम’ बोलती मां। उनके पांव में पहनी हुई चांदी की छड़ों की छन्न-छन्न।

गांव की गर्मी में बच्चे, जवान, छत पर सोते थे। सांझा ढले छत पर पानी का छिड़काव करते। बिस्तर बिछाते। पीने को पानी का घड़ा रखते। खुला आसमान। तारों की छांह। ठंडी हवा। सुबह होते-होते हवा में ठंडी खुनक, नमी और झारती ओस। पौ फटने से पहले मां का ‘हे राम’, छड़ों की छन्न के साथ छत पर आना और ‘सै उघाड़ा पड़्या है, ठंड लाग ज्यासी’, कहते हुए एक-एक को चद्दर खोल कर उढ़ाना।

1975 में मां हमारे पास अजमेर आ गई। पिताजी का देहावसान हो चुका था। मैं मेडिकल कॉलेज में एनाटोमी में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हूं। श्रीमतीजी केमिस्ट्री में पीएचडी कर सोफिया कॉलेज में पढ़ा रही हैं। तीन छोटे बच्चे। बड़ा लड़का और छोटी दो लड़कियां। स्कूल से वापस आते। मां उनके लिए खाना बनाती मिलती। अपने बस्ते पटक, जूते खोल, हाथ धो, सीधे रसोई को भागते। गैस के चूल्हे पर खाना बनाना उनके बस का नहीं, काम वाली बाई कच्चे कोयले की सिगड़ी सुलगा देती। मां उनके लिए मंदी आंच पर साटन की रोटी बनाती। कभी चीनी की मीठी रोटी। बच्चे झागड़ते, पहले मुझो। मां तीन टुकड़े कर तीनों को दे देती। बच्चे जिद करते तो आटे की गोल बाटी बना नीचे सिगड़ी की भोभर में डाल देती और घी और बूरे में चूर कर परोस देती।

मां का सरल सादा जीवन। अपने ठाकुरजी की सेवा। पूजा पाठ, पास के मंदिर में मंगला आरती और संध्या आरती। व्रत उपवास। अपनी आस्था के अनुरूप ‘धरम-पुन्न।’ पास पड़ोस में रहने वाली अपनी हम उम्र महिलाओं से सत्संग। पिताजी की पुण्य तिथि पर मंदिर के पंडित को घर बुला कर जिमाना। सारा खाना खुद बनाती। मुझो गऊग्रास, कुत्ते की रोटी, नंगे पांव जा कर देना है। अस्पताल और मेडिकल कॉलेज के पास ही घर है। साथ काम करने वाले डॉक्टर-छात्र मुझो, गाय, कुत्ते को नंगे पाव रोटी खिलाते देख चौंकते हैं। क्या सचमुच मुझो जानवरों के प्रति इतनी श्रद्धा है। बाद मे मेडिकल कॉलेज में मुझो कुत्ते पर एक्सपेरीमेंट करते देख उन्हे लगता, अजीब ढकोसला है।

मुझो नहा धोकर हाथ जोड़ कर पंडितजी को जिमाना है। उनकी जूंठी थाली खुद उठानी है। पांव छू कर उन्हे दक्षिणा देनी है। मां की मान्यता है सब इसी प्रकार होने से ही पुण्य मिलेगा। स्वर्गीय की आत्मा को शान्ति मिलेगी। उन्हे मोक्ष मिलेगा। मैं कलकत्ते में पढ़ा लिखा हूं। मेरी विचारधारा से अवगत लोगों को समझााना मुश्किल है। हर बात का बौद्धिक पक्ष ही अहम नहीं होता। धर्म की अवधारणा आस्था का प्रश्न है। मां की आस्था उनकी है। बेटे के रूप में उनकी हर आस्था में आस्था रखना मेरा धर्म है। मैं सहर्ष सब कुछ करूंगा। मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिससे उनको लगे, उनका ‘जीवन’ बिगड़ गया है, वे ‘पाप’ की भागीदार हो गईं हैं। उनके मन को दुख पहुंचे और वह अपने आप को बेबस महसूस करे, मैं ऐसा कुछ नहीं होने दूंगा। अपने वामपंथी मित्र से चिढ़ कर मैंने कहा ‘वे गाय की पूंछ पकड़ कर वैतरणी पार कर ‘मोक्ष’ प्राप्त करेंगी यह उनकी आस्था है।
आप आई. सी. यू. में भर्ती हो वेन्टीलेटर पर सवार, डॉक्टर की दुम पकड़ मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं, आपका स्वागत है, आपके लिए वैसा ही होगा।’ अपने विचारों और धारणाओं को इन्टलेक्चुअल प्रोपर्टी -बौद्धिक संपदा- के बतौर प्रतिपादित करना आज के शिक्षित वर्ग का शगल हो गया है। पारिवारिक और परिवारेत्तर स्वरूप में एक अनकहा, अव्याख्यायित वेदना-संवेदना का रिश्ता होता है, यह उनकी समझा के परे है। यही रिश्तों की गहराई और विश्वसनीयता की कसौटी होता है, उनकी तार्किक बुद्धि इसे नहीं स्वीकारती। आधुनिक, संभ्रांत और बुद्धिजीवी होने की प्रक्रिया में हम जीवन की सरसता, सरलता और स्वाभाविकता को खो रहे हैं। आधुनिक जीवन शैली में रंगते जा रहे हंै। मानव समाज में संबंधों की सहजता, आत्मीयता, स्नेहसिक्तता गायब हो रही है। इन्हें सहेजा कैसे जाए?
मां माला के मणिए घुमा रही हैं। प्रणाम करने आया तो इशारे से बैठने को कहा। माला का फेरा पूरा होने पर दोनों आखों से लगा, माला को रखा। बोली, ‘म्हारा माथा पर हाथ रख’र कह कै मैं कहूं बो करैगो।’ कहने लगी, ‘मनै आखरी ‘टेम’ अस्पताल मत लेज्याजे। म्हारी दुरगत मत कराजे।’ दुर्गति की उनकी अपनी सोच अपनी अवधारणा थी। मां की इच्छा थी-

माळा मनका फेरती, बोली थी यूं मात।
के करणों उण टेम पर, सुण तू म्हारी बात।।
नीचै मनै उतारजै, गोडो दीजे माथ।
म्हारी खुली हथेलियां, रखजे थारा हाथ।।
चेत नहीं, चित सै घणीं, ल्यूंगी मैं पहचाण।
सां का सुर, सां की छुअन, रोम रोम की बाण।।
दुर्गत मता करायजे, सघन इकाई भेज।
नळी, शेगळया जकड़ कर, मोत जोहती सेज।।

अपणो जीवण जी चुकी, थां मैं जीऊं चाह।
मौत टळै दुर्गत हुए, आ म्हारी नी चाह।।
दुर्गत मता करायजे, नळयां, शेगळयां डाळ।
कंठा अटकै जीव ओ, टक-टक जोऊं काळ।।
थां खातिर ही मैं जिई, ओ ही म्हारो नेम।
आई. स्यू. मत भेजजे, मनै आखरी टेम।।

मैंने अपने सहयोगी को मां की इच्छा के बारे में बताया। छूटते ही बोले ‘यह तो आत्महत्या है।’ मंैने उन्हें समझााया कि किसी भी वयस्क सक्षम व्यक्ति के होशो हवाश में लिए गए निर्णय के खिलाफ आप उसके शरीर पर कुछ नहीं कर सकते। उसकी स्वीकृति आवश्यक है। नकारात्मक निर्णय (डिनायल ऑफ कसेन्ट) भी बाध्यकारी होता है। यह व्यक्ति की स्वायत्तता (ओटानामी) के अधिकार में आता है। भविष्य के लिए लिए गए ऐसे निर्णय को एडवांस डायरेक्टिव अथवा लिविंग विल (वसीयत) कहते हैं। ‘मुझो वेन्टीलेटर न लगया जाए’, ‘जब मेरे दिल की धड़कन बंद हो जाय तब सीपीआर कर मुझो वापस जिलाने की चेष्टा न की जाए’, ‘डू नॉट रिसेसिटेट’ ऐसे एडवांस डायरेक्टिव देने का अधिकार सक्षम व्यक्ति का है। इसे चिकित्सकीय भाषा में ‘डीएनआर’ कहा जाता है। हर व्यक्ति को मर्यादित मृत्यु का अधिकार है। क्या मर्यादित है, दुर्गति क्या है, यह हर व्यक्ति की व्यक्तिगत अवधारणा होती है। देह का मोह त्याग, मृत्यु को सहज स्वीकारना सरल नहीं होता। पीड़ा रहित सहज स्वाभाविक मृत्यु की अपेक्षा और आकांक्षा हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। मुक्ति और मोक्ष प्राप्ति की अपनी अपनी अवधारणा होती है।

लेकिन मां के आखरी समय मैं उनके पास नहीं था। वे मेरे छोटे भाई के पास हैदराबाद में थी। गोड़ा वास्तव में भाई की बहू ने दिया था, भाई उस समय घर पर नहीं था। उनकी इच्छानुसार उन्हें उनकी पूजा में रखा गंगाजल तुलसी दी गई। गीता पाठ किया गया। मां की इच्छा थी कि उनके ठाकुरजी की पूजा का नियम बहू ले। वह आज भी कर रही है।

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