वक्ष एवं क्षय रोग अस्पताल के पूर्व अधीक्षक तथा एसएमस मेडिकल कॉलेज के पूर्व अतिरिक्त प्राचार्य डॉ.निर्मल कुमार जैन ने बताया कि इस बीमारी के 70 प्रतिशत मरीज प्राइवेट सेक्टर में उपचार कराते हैं। टीबी जैसे संक्रामक रोग के इलाज में 6-9 महीने लगते हैं और संक्रमण के स्तर के मुताबिक इलाज की अवधि में इजाफा हो सकता है। इसलिए यह बेहद अहम हो जाता है कि टीबी रोगियों को प्राइवेट सेक्टर में उच्च क्वालिटी का इलाज हासिल हो। देर तक चलने वाले उपचार की वजह से कई साइड इफैक्ट हो सकते हैं जैसे उबकाई, उल्टी, आर्थराइटिस, न्यूराइटिस, पेरिफेरल न्यूरोपैथी और थकान आदि, इन वजहों से मरीज के लिए इलाज पूरा करना और भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण बन जाता है।
केन्द्र सरकार के निर्देश पर राजस्थान सरकार ने अगस्त 2018 में ‘जॉइंट ऐफर्ट फॉर ऐलिमिनेशन ऑफ टीबीÓ (जीत) प्रोग्राम लांच किया। जीत प्रोग्राम का लक्ष्य यह है कि एक इंटरफेस एजेंसी, एनजीओ के जरिए प्राइवेट सेक्टर के स्वास्थ्य प्रदाताओं को साथ लेकर चला जाए, उन्हें टीबी मामलों की सूचना देने का महत्व बताया जाए और निदान व उपचार के नए नियमों के बारे में शिक्षित किया जाए। सरकार की इस पहल का लक्ष्य है कि मुफ्त निदान और उपचार हर मरीज को उपलब्ध हो चाहे वो इलाज प्राइवेट या सरकारी क्षेत्र से कराए। इससे रोगी इलाज पर होने वाले भारी खर्च की मार से बच जाते हैं, यह एक बहुत प्रभावी कदम है जिसे पूरे प्रदेश में लागू किया गया है।
जीत प्रोग्राम को इस इरादे के साथ शुरु किया गया कि एक ऐसा ईकोसिस्टम निर्मित किया जाए, जिसमें मरीज अपनी सुविधानुसार मानकीकृत उपचार तक पहुंच प्राप्त कर सके, किंतु राजस्थान में इसे जमीनी हकीकत बनाना चुनौतीपूर्ण रहा है। फिलहाल प्राइवेट सेक्टर में रोगियों को सिर्फ टीबी परीक्षण ही निशुल्क मिलता है जबकि एचआईवी, बलगम व शुगर जैसे परीक्षणों के लिए उन्हें शुल्क चुकाना होता है। सरकार की ओर से मुहैया कराई जा रही मुफ्त दवाएं प्राइवेट सेक्टर के टीबी रोगियों को नहीं मिल पा रही हैं, क्योंकि सरकारी डॉक्टर निदान की प्रक्रिया पुन:आरंभ करते हैं परिणामस्वरूप इलाज में देरी होती है और उपचार कार्यक्रम पर विपरीत असर पड़ता है।
प्राइवेट सेक्टर के रोगियों को निशुल्क निदान व दवाएं देने की प्रक्रिया के बारे में सरकार की ओर से कोई निर्देश नहीं हैं। इसके अतिरिक्त, प्राइवेट कैमिस्टों व लैबोरेट्रीज़ को इस प्रोग्राम से बाहर रखा गया है – जबकि ये ऐसे संसाधन हैं जो सरकार को आसानी से उपलब्ध हो सकते हैं और इनका सदुपयोग किया जा सकता है। इससे न केवल उपचार सेवाओं तक रोगियों की पहुंच बढ़ेगी बल्कि सरकार को प्राइवेट सेक्टर में इलाज के मानकों की निगरानी सुनिश्चित करने का मौका भी मिलेगा। डॉ.एन.के.जैन ने बताया कि लगभग रोज ही मैं ऐसे मरीजों का इलाज करता हूं जो प्राइवेट व सरकारी दोनों अस्पतालों में बहुत से डॉक्टरों को दिखा चुके हैं, लेकिन उनके टीबी का अब तक निदान नहीं हुआ है। किसी मामले में यह जांच नहीं हुई कि टीबी की फस्र्ट लाइन दवाएं असर कारक हैं भी या नहीं, किसी मामले में साइड इफैक्ट पर ध्यान नहीं दिया जा रहा और इनका नतीजा यह हो रहा है कि ड्रग रेसिस्टेंट टीबी के मरीजों के मामले बढ़ रहे हैं। इसीलिए प्राइवेट डॉक्टरों व कैमिस्टों को इस मुहिम से जोडऩा बेहद जरूरी है।