-500 टन कचरे से 40 टन खाद बनाई जा सकती है।
-एक टन कचरे से दो एलपीजी के सिलेंडर बनाए जा सकते हैं।
इस लिहाज से शहर के 1800 टन कचरे से प्रतिदिन 3600 एलपीजी के सिलेंडर बनाए जा सकते हैं। भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र की ओर से ऐसे ही बॉयो प्लॉन्ट तैयार किया गया है, जो कचरे का उपयोग करता है। मुम्बई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुम्बई में अभी इसका उपयोग भी किया जा रहा है। केंद्र की ओर से इसका बनाने का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि समाज डम्पिंग यार्ड से मुक्त हो सके।
लांगडिय़ावास में एक सीमेंट कम्पनी रोज 300 से 400 टन कचरा लेने में सक्षम है, लेकिन कम्पनी का काम देख रहे शलभ अग्रवाल कहते हैं कि सूखा कचरा तो दूर कचरे में मिट्टी से लेकर पेड़ पौधों के पत्ते तक आ रहे हैं। जबकि इनका यहां कोई काम नहीं है। यहां बनने वाले ईंधन का कम्पनी अपने सीमेंट प्लांट में उपयोग करती है
पहले कचरे को काटने का काम होता है। लोहे और पत्थर के टुकड़ों को अलग किया जाता है। अगले चरण में मिट्टी को कचरे से दूर किया जाता है। इसके बाद बचे सामान को बारीक कर प्लॉन्ट पर भेजा जाता है। जहां इसे 1400 डिग्री सेंटीग्रेट से अधिक के तापमान पर जलाया जाता है।
डम्पिंग जोन पहुंचते-पहुंचते कचरा दो से तीन हाथों के बीच निकलता है। ऐसे में रिसाइकिल होने वाला सामान इसमें से गायब हो जाता है। एक्सपर्ट व्यू
-डॉ. अजीत भारद्वाज, सेवानिवृत, मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी (नगर निगम)