scriptकरगिल युद्ध में पैर गंवाने के बावजूद नहीं खोया हौसला, जीत की खुशी ने भर दिए युद्ध के जख्म | This Army Major officers Lost A Leg feet during the Kargil war | Patrika News

करगिल युद्ध में पैर गंवाने के बावजूद नहीं खोया हौसला, जीत की खुशी ने भर दिए युद्ध के जख्म

locationजयपुरPublished: Jul 26, 2018 10:33:39 am

Submitted by:

rajesh walia

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kargil hero
अमित पारीक/ जयपुर

”12 जून 1999 की रात मेरे जेहन से कभी नहीं जाती। आज भी उस भयावह रात को याद करता हूं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सचमुच उस अंधकार में मैंने बहुत कुछ खोया और जो पाया उसने देश का सीना चौड़ा कर दिया। जम्मू कश्मीर की टोलोलिंग पहाड़ी को दुश्मन से मुक्त करवाना देश के लिए करगिल युद्ध में पहली बड़ी जीत थी।” यह कहना है राजरिफ दो (राजपूताना राइफल्स) के राइफल मैन रामसहाय बाजिया का।
उनके मुताबिक करगिल युद्ध में मोर्चे पर जाने की खबर के साथ ही मन में रोमांच के साथ हल्का सा डर भी थी। चूंकि 18 ग्रेनेडियर दो बार टोलोलिंग के लिए प्रयास कर चुकी थी। लेकिन 24 सैनिकों के शहीद होने के बावजूद दुश्मन वहीं डटा था। ऐसे में जाने से पहले हमने पूरी तैयारी की। इलाके को बारीकी से समझा,खंगाला और निकल पड़े युद्ध भूमि की ओर। हमने जाने से पहले अपने बिस्तर, पेटी में परिवार के नाम पत्र लिखे थे। सभी ने मान लिया था कि वे अब नहीं लौटेंगे ऐसे में अपनों के नाम यह अंतिम पत्र होगा। तीस -चालीस किलो वजनी बैग के साथ हमने 11 जून को टोलोलिंग पर चढ़ाई शुरू की। खड़ी चट्टानें, न कोई पेड़, न आश्रय। कदम-कदम पर मौत और 17 हजार फीट की ऊंचाई। ऊपर से बार-बार बिगड़ता मौसम। रही-सही कमी नश्तर की तरह चुभती बर्फीली हवा पूरी कर देती। चंद पलों में ही शरीर के खुले अंगों को काट देती और खून बहने लगता। लेकिन हम बिना रुके, बिना थके बस ऊपर चढ़ते रहे।
अलसुबह पहुंचे टोलोलिंग
हम 12 जून को सुबह 5 बजे टोलोलिंग पहाड़ी पर पहुंचे थे। अलग-अलग टुकडिय़ों में करीब 250 सैनिकों ने मौके पर पहुंचते ही उस बंकर को घेर लिया जिस पर सैनिकों के वेष में पाक आतंकियों ने कब्जा कर लिया था। लेकिन हमें शाम के धुंधलके तक हमला नहीं करना था। हालांकि 20 किमी दूर से बोफोर्स तोप से कवर सपोर्ट मिल रहा था। बोफोर्स के हर गोले से टोलोलिंग ही नहीं आस-पास की पहाडिय़ां भी थर्रा रही थीं।
रात 8 बजते ही टूट पड़े
शाम के साथ ही बोफोर्स की ओर से गोलाबारी में कमी आ गई। यही हमारे लिए संकेत था। रात 8 बजते ही राजरिफ 2 बटालियन के जवान पाक सैनिकों पर टूट पड़े। चारों ओर से भारतीय सैनिकों की ओर से पाक बंकर पर ताबड़तोड़ फायरिंग की जा रही थी। तभी बंकर में से तीन पाक सैनिक अंधाधुंध गोलियां चलाते हुए बाहर आए। वे हर दिशा में एके 47 से जबर्दस्त फायर कर रहे थे। इसी फायरिंग में भारत के 9 जवान शहीद हो गए। 17 जवान गोलियां लगने से लहूलुहान हो गए।
ढेर कर दिया 22 पाक सैनिकों को
जब तीनों पाक सैनिकों को लगा कि अब बचना मुश्किल है तो वे गोलियां बरसाते हुए खुद ही पहाड़ी के ढलान में लुढ़कने लगे। राजपूताना राइफल्स के सैनिकों ने अपनी गोलियों से उन्हें छलनी कर वहीं ढेर कर दिया। उन तीनों को मारने के बाद जवानों में जोश आ गया था। बंकर पर ग्रेनेड फेंके गए धमाके के साथ ही पाक सैनिकों के चीथड़े उड़ गए। उनका गोला बारूद, रसद सब मटियामेट हो गए। बंकर में 19 पाक सैनिक थे जिनकी उसी में कब्र बन गई।
माइन्स पर पैर पड़ते ही ब्लास्ट हुआ
रामसहाय के अनुसार टोलोलिंग पहाड़ी पर भारतीय सैनिकों ने रात में ही कब्जा ले लिया था। हालांकि हमें यह अहसास था कि पाक पलटकर वार करेगा। पाकिस्तानी तोपें कभी भी गरज सकती थीं। ऐसे में अंधेरे में ही हम बंकर बनाने में जुटे। लेकिन एकाएक मेरा पैर माइन्स पर पड़ गया धमाका हुआ और मैं बेहोश हो गया। 20 मिनट बाद होश आया तो शरीर जल रहा था। निचले हिस्सा लहूलुहान था। दर्द ऐसा कि बयां करना भी मुश्किल था। कुछ तो हुआ था धमाके के साथ। बाद में खुद को संभाला तो पता चला कि मेरा बायां पैर माइन ब्लास्ट उड़ गया।
मुझे गोली मार दो
जैसे ही मुझे यह पता चला कि मेरा एक पैर नहीं रहा मैं गहरे अवसाद में चला गया। दर्द को भूल खुद के दिव्यांग होने व लाचारी पर शर्म आने लगी। एक पल के लिए लगा जैसे जीवन वहीं ठहर गया हो। ईश्वर से यही कहता रहा कि मुझे क्यों नहीं शहीद किया? क्यों ऐसे दिव्यांग बनाकर छोड़ दिया? अब गांव किस मुंह से जाऊंगा? दिव्यांग होने की पीड़ा ने मुझे भीतर तक हिला दिया। मैं बार-बार साथियों से यही कहता रहा कि वे या तो मुझे मार डालें या अपनी राइफल मुझे दे दें। इस ऊहापोह में कब रात निकल गई पता ही नहीं चला।
दस कदम चलते फिर सांस लेते
अलसुबह पांच बजे घायल सैनिकों को कंधों पर उठा पहाड़ी से नीचे उतारना शुरू किया गया। पहाड़ी पर चढऩा ही नहीं उतरना भी कठिन है। उससे कहीं ज्यादा मुश्किल है एक घायल को कंधे पर उठा नीचे उतारना। वो भी तब जब बगल वाली टाइगर हिल से पाकिस्तानी सेना गोले बरसा रही थी। पीछे से उनके ओर से बमबारी जारी थी। हमारे सैनिक बमुश्किल खुद को उन हमलों से बचाते हुए आगे बढ़ रहे थे। ऑक्सीजन की कमी, बिगड़ते मौसम के बीच हर 10 मीटर चलते फिर घायलों को नीचे उतार कुछ पलों के लिए जमीन पर लेट सांस लेते और आगे बढ़ते। हम शाम को पांच बजे नीचे बंकर तक पहुंच पाए थे। तब तक मौसम और बिगड़ गया ऊपर से पाकिस्तान ने टोलोलिंग खोने के बाद बमबारी तेज कर दी। ऐसे में घायल सैनिकों को उस रात वहीं बंकर में शरण लेनी पड़ी।
अस्पताल में हवा हुई मायूसी
अगले दिन 20 किमी दूर हैलीकॉप्टर से मुझे श्रीनगर अस्पताल ले जाया गया। वहां पांच दिन रखा गया। उसके बाद चंडीगढ़ शिफ्ट कर दिया गया। अंत में पुणे भेज दिया गया जहां 5 माह तक उपचार चला। हालांकि मेरी सारी मायूसी वहीं हवा हुई। आए दिन स्थानीय लोग, बच्चे, सेना के अफसर, जाने-माने लोग हम से मिलने आते। कुशलक्षेम पूछते और कहते कि आप ने जो पैर गंवाया है उसी के कारण हम करगिल युद्ध जीत पाए हैं। आपने जो देश के लिए किया वो करना आसान नहीं। बच्चे हमारे लिए काड्र्स, गिफ्ट लाते तब जाकर लगने लगा कि वास्तव में हमने बड़ा काम कर डाला। उसके बाद से ही मेरी सोच बदल गई।
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