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जिस लॉकडाउन को दुनिया आज फॉलो कर रही वह भूटान में सदियों पुरानी प्रथा

locationजयपुरPublished: Mar 28, 2020 10:33:13 am

Submitted by:

Kiran Kaur

महामारी से लड़ने के लिए भूटान में किया गया लॉकडाउन यहां के लिए कोई नई बात नहीं है, यहां इससे पहले भी ऐसा किया गया है और यही वजह है कि उनके पास इसका एक नाम भी है – युलसुंग।

जिस लॉकडाउन को दुनिया आज फॉलो कर रही वह भूटान में सदियों पुरानी प्रथा

जिस लॉकडाउन को दुनिया आज फॉलो कर रही वह भूटान में सदियों पुरानी प्रथा

जिस लॉकडाउन को आज पूरी दुनिया फॉलो कर रही वह भूटान में सदियों पुरानी प्रथा है. यही वजह है कि भूटान के पास इसका एक नाम भी है – युलसुंग। सदियों पहले इस हिमालयी राज्य ने एक महामारी के प्रकोप संकेतों की वजह से अपने गांवों और प्रांतों में लॉकडाउन कर दिया. भूटान के शासक झाबद्रुंग रिनपोचे या आध्यात्मिक प्रमुख जिन्होंने सोलहवीं शताब्दी में इस छोटे से देश पर शासन किया और उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के बाद से शासन करने वाले वांगचुक रॉयल्स ने महामारी के प्रकोप के पहले संकेतों को देखते हुए ‘युलसुंग’ को गांव और प्रांतों में लागू कर दिया। प्राचीन ‘युलसुंग’ अभ्यास विशिष्ट नियमों और विनियमों के अपने सेट के साथ आया था। एक गांव या विशिष्ट क्षेत्र के सभी निवासी जो युलसुंग के अधीन थे, उन्हें शासक द्वारा दिए गए निर्णय के अनुसार पूरी अवधि के लिए सख्त सेल्फ क्वारंटाइन में रहना होता था। इसमें किसी भी व्यक्ति को क्षेत्र में प्रवेश करने या उससे बाहर आने की अनुमति नहीं होती थी। उल्लंघन करने वालों के लिए सख्त दंड का प्रावधान था। इसमें शासक एक सख्त प्रोटोकॉल में लॉकडाउन के तहत क्षेत्र की परिधि पर यात्रा करने के लिए किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को नामित करता था। फिर क्वारंटाइन इलाके का एक व्यक्ति शासक के दूतों से आकर मुलाकात करता था और इस दौरान दोनों के बीच 100 मीटर की दूरी होती थी। व्यक्ति, संबंधित क्षेत्र की आवश्यकताओं के बारे में बताता था और फिर दूत शासक के आदेशानुसार भोजन, पारंपरिक दवाओं और अन्य सामान की व्यवस्था करते थेा सामग्री को सौंपने के लिए प्रोटोकॉल का भी उल्लेख किया गया था। सामग्री को एक विशेष स्थान पर रखा जाता था जैसे किसी बड़े पेड़ के नीचे जो कि लॉकडाउन के क्षेत्र की सीमा से कम से कम सौ मीटर की दूरी पर हो। युलसुंग के तहत लोग राहत दस्ते के चले जाने के एक घंटे बाद राहत सामग्री एकत्र करने के लिए आते थे। इसी दौरान दूत अपनी यात्रा की अगली तारीख के बारे में संदेश भी छोड़ देते थे जो कि आमतौर पर एक सप्ताह के बाद का होता था।
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