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JAISALMER NEWS- प्यासे थे तो करते थे रखवाली, अब छोड़ दिया खंडहर होने के लिए..

locationजैसलमेरPublished: Jan 11, 2018 01:42:07 pm

Submitted by:

jitendra changani

प्यासे थे तो करते थे रखवाली, अब विरासत की अनदेखी- उपेक्षा के शिकार परंपरागत पेयजल स्रोत

Jaisalmer patrika

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जैसलमेर. फलसूण्ड क्षेत्र में पुराने कुएं व परम्परागत पेयजल स्रोत उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं। उनका रख रखाव नहीं होने से परंपरागत स्रोत धीरे-धीरे अस्तित्व खोते जा रहे हैं। गौरतलब है कि इन्हीं कुओं व बेरियों की लोग रखवाली करते थे, लेकिन अब कोई आंख उठाकर भी नहीं देखता। इसके चलते वे अमावस्या व एकादशी को तालाबों व कुओं पर श्रमदान कर साफ सफाई करते थे। ऐसे नजारे नई सोच व वैज्ञानिक युग के साथ कहीं नजर नहीं आ रहे। इन्हीं कुओं व तालाब से क्षेत्र के हजारों लोग व पशु अपनी हलक तर करते थे। अब सार-संभाल नहीं होने से ये रेत में दफन होते जा रहे हैं।
सूखा था यह क्षेत्र
रेगिस्तान के घने रेत के टीलों के बीच बसे फलसूण्ड क्षेत्र में पानी की कमी के चलते यह क्षेत्र सूखा रहता था। लोगों को पानी के लिए मीलों का सफर तय कर अपने साधनों से पानी लाना पड़ता था। धीरे-धीरे इस क्षेत्र में पालीवाल समाज के लोगों ने अपना डेरा जमाया। उन्होंने इस क्षेत्र के लोगों को साथ लेकर नाडी, तालाब, कुओं व छोटी-छोटी बेरियों का निर्माण करवाया। इससे लोगों को पानी की समस्या से निजात मिली और इस क्षेत्र में आज दर्जनों कुएं, तालाब व बेरियां हैं। इससे लोग अपनी व पशुओं की प्यास बुझाते थे, लेकिन आज वे उपेक्षित हालत में हैं। फलसूण्ड गांव में पानी की बेरियां, दांतल में पुराना कुआं, फूलासर में नाडियां व पार, भीखोड़ाई में मीठड़ा तला से कई गांवों के लोगों की प्यास बुझती थी।

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IMAGE CREDIT: patrika
यह हुई स्थिति
इस क्षेत्र की दर्जनों बेरियां, कुएं, तालाब, नाडी का उपयोग नहीं होने से ये रेत से अट गई हैं। कई जगह इनके बबूल की झाडिय़ों से घिर जाने से पारंपरिक पेयजल स्रोत और इनके लिए पुराने समय आवंटन आगोरों पर अतिक्रमण होने से अब यह सिमट कर गए हैं। यदि इन सभी से मुक्त करवा दिया जाए, तो पुन: ये पेयजल स्रोत के रूप में विकसित हो सकते हैं।
रातभर करते थे चौकीदारी
बुजुर्गों का कहना है कि पहले पानी के लिए लम्बा सफर तय करना पड़ता था। बाद में बेरियां बनाई तो 10 फीट तक गहरा पानी मिल गया। इन बेरियों पर पानी भरने के लिए दिनभर महिलाओं का जमघट रहता था। वहीं रात को पुरुष इन कुओं व बेरियों की चौकीदारी करते थे। सुबह जो पानी इक_ा होता उसे बारी-बारी से भरते थे, लेकिन अब इन स्रोतों का रख-रखाव तक नहीं हो रहा।
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