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6 अप्रैल 2010 के उस दिन को याद करते हुए कलिस्ता बताती हैं कि घटना के ठीक पहली रात को उसके पति लेओस ने उनसे और तीनों बच्चों बड़ी बेटी आकांक्षा, छोटी बेटी अमिशा और 1 साल के बेटे अश्विन के साथ फोन पर बात की और जल्दी ही छुट्टी लेकर घर आने का वादा किया था। 6 अप्रैल 2010 को जब वो अपने घरेलू कामकाज में व्यस्त थी, दोपहर तकरीबन 2 बजे उन्हें पति लाओस के ताड़मेटला हमले में शहीद होने की सूचना मिली थी। एक पल के लिए तो इस खबर पर यकीन ही नही हुआ।यह भी पढ़ें: नक्सलियों के संचार प्रमुख सोबराय की कोरोना से मौत, हैदराबाद में इलाज के दौरान दम तोड़ा
तीन बच्चों का भविष्य संवारने की थी जिम्मेदारी
मुठभेड़ के बाद बस्तर के घने जंगल से होकर जब शहीद लेओस का पार्थिव शरीर उनके गांव बरांगजोर पहुंचा, तो कलिस्ता की आंखों में आंसुओ के सैलाब के साथ तीन बच्चों का भविष्य संवारने की जिम्मेदारी थी। साथ ही 80 साल के बुजुर्ग ससुर रफेल खेस की देखभाल भी उसी के जिम्मे थी। बीते 12 साल के दौरान इन सभी जिम्मेदारियों को कलिस्ता ने बखूबी निभाया है। बड़ी बेटी आकांक्षा और अमिशा अभी कक्षा 12वीं बोर्ड परीक्षा की तैयारी में जुटी हुई है। वहीं बेटा अश्विन 7वीं क्लास में है।
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मां की इच्छा अमिशा संभाले पिता की विरासत
कलिस्ता की इच्छा है कि छोटी बेटी अमिशा पिता की तरह सेना या सीआरपीएफ में भर्ती हो कर देश की सेवा करे। कलिस्ता ने कहा कि पति की शहादत के बाद सरकार और शासन से मिली सहायता और सम्मान से अभिभूत हूं। गांव में पंचायत ने लेओस की शहादत को सलामी देते हुए स्मारक का निर्माण कराया है। दिल में शहीद पति लेओस की याद को समेटे कलिस्ता को इंतजार है तो बस, बेटी अमिशा के बालिग होने और उसके सेना या सीआरपीएफ में भर्ती होने का।