साढ़े चार सौ साल पहले भृगु ऋषि की तपस्थली भगोर से हुई थी भगोरिया की शुरुआत
झाबुआPublished: Mar 04, 2023 01:31:23 am
भगोरिया उत्सव को यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की सूची में शामिल करने की मांग


साढ़े चार सौ साल पहले भृगु ऋषि की तपस्थली भगोर से हुई थी भगोरिया की शुरुआत
झाबुआ. लोक संस्कृति के उत्सव भगोरिया का इतिहास करीब साढ़े चार सौ साल पुराना है। झाबुआ जिले के छोटे से गांव भगोर जिसे भृगु ऋषि की तपस्थली कहा जाता है वहां से शुरू होकर ये आदिम उल्लास का उत्सव मालवा में रतलाम तक तो निमाड़ में कुक्षी, बड़वानी से लेकर खरगोन तक पहुंच गया। इतनी पुरानी सांस्कृतिक विरासत होने से स्वत: यूनेस्को के लिए दावा पुख्ता हो जाता है।
दरअसल भगोरिया उत्सव के इतिहास को जानने के लिए इतिहासविद डॉ. केके त्रिवेदी से बात की। उन्होंने बताया कि झाबुआ से करीब सात-आठ किमी दूर भृगु ऋषि की तपस्थली भगोर है। लगभग साढ़े सात सौ साल पहले यहां सघन बस्ती हुआ करती थी।
प्राकृतिक अकाल की वजह से बस्ती पूरी तरह से उजड़ गई। भगोर के लोग जाकर रतलाम में बस गए। इसलिए एक कहावत भी है कि भाग्यो भगोर और बसियो रतलाम। बाद में जब व्यवस्थाएं ठीक हुई। इसके बाद लोगों ने मिलकर भगवान शिव और पार्वती की पूजा की। ये भव-गौरी का मंदिर नेगड़ी नदी के पास जो मदन तालाब है, उसके किनारे स्थित है। वहां पर विधि विधान से पूजा की गई। उसी के आधार पर भगोर का नामकरण हुआ।
करीब 450 साल पहले जो भग्गा नायक शासक था, उसने भगोर को व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। प्रतिवर्ष यहां होली के पहले हाट बाजारों में पूजन के लिए मेला आयोजित किया जाने लगा। यहीं मेला जो भगोर का हाट था वह भगोरिया कहलाया जाने लगा। तब से यह उत्सव पलवाड़, मेघनगर, थांदला, पेटलावद से होते हुए रतलाम और धार क्षेत्र तक फैला। दूसरी तरफ निमाड़ के क्षेत्र में बड़वानी और खरगोन तक पहुंच गया। इस तरह से भगोरिया का शुभारंभ हुआ। ये आदिवासी संस्कृति का महान पर्व है, जिसके अंतर्गत होली के पहले पूजन आयोजित होता था वह हाट बाजारों में मिलने का स्थान बना। इस तरह मस्ती और संस्कृति इन दोनों के मेल मिलाप को हम भगोरिया कहते हैं।
उत्सव अब आधुनिक रंग में पूरी तरह से रंग गया
शहर के वरिष्ठ फोटोग्राफर 80 वर्षीय एसएल गुप्ता ने बताया कि वे सालों पूर्व से भगोरिया उत्सव को अपने कैमरे में कैद करते आए हैं। एक समय था जब आदिम उल्लास के इस पर्व में ग्रामीण पारंपरिक वेशभूषा में ही आते थे। अब संस्कृति पूरी तरह से आधुनिकता के रंग में रंग चुकी है। श्री गुप्ता ने खास तौर पर वर्ष 1970 के भगोरिया उत्सव की तस्वीर भी उपलब्ध कराई। एक तस्वीर मेले की है तो दूसरी तस्वीर में एक ग्रामीण युवती खरीदारी करते नजर आ रही है।