हमें दीपक बनाने की करीब डेढ़ माह पहले से तैयारी करना पड़ती। तब ग्रामीण अंचल के आदिवासी भाइयों के घर दीपक मटकी रख पाते हैं , क्योंकि हमारे बुजुर्गों द्वारा गांव निर्धारित कर रखे हैं उन गांव में दीपक रखने के लिए जाना पड़ता है। बदले में हम उनसे कोई पैसा नहीं लेते, दिसंबर माह में अनाज लेने जाते हैं। दीपक व मटकी बनाने में मिट्टी में दिनभर रहना पड़ता है। महंगाई के जमाने में अब एक ट्रॉली मिट्टी करीबन 7000 रुपए में मंगवानी पड़ती है। वह भी दूर से उसके बाद उस मिट्टी को छन्नी से छाना जाता है। फि र पानी में गलाया जाता है। इसके बाद चौक पर रखकर बर्तन, दीपक व अन्य चीजें बनाई जाती है। इतनी कला होने के बाद भी प्रशासन हम लोगों पर ध्यान नहीं देता। हमें आर्थिक सहायता मिल जाए तो कला का इस्तेमाल कर सकते हैं। मेरे पास कई गांव के समाज के लोग बुकिंग पर आते हैं। दीपक की जैसे कि राजस्थान के बांसवाड़ा, धार जिले के धार, राजोद, थांदला , सारंगी, पेटलावद के लोग मुझसे खरीद कर ले जाते हैं। वह भी अपने बुजुर्गों द्वारा बताए गए गांव में दीपक रखने जाते हैं।
पहले चाक से दीपक-मटके बनाते थे गांव के कान्हा प्रजापत ने बताया कि हाथों से अगर हम दीपक मटकी बनाते हैं तो वह महंगी पडती दूसरी जगह से लाकर हम आदिवासी भाइयों के घर रखते हैं। वह हमें सस्ती पड़ती है। कैलाश भाई यूं तो वह विकलांग हैं, लेकिन उनका
दिमाग तो इतना चलता है कि कोई सी भी चीज इतनी बढि़या मिट्टी से बना देते हैं। वह आकर्षण करती है। वह कहते हैं पहले चॉक से हम दीपक मटके बनाते थे,लेकिन मैं मजबूर होने से मुझे इलेक्ट्रॉनिक चॉक काइस्तेमाल करना पड़ता है ।
मेरा पैर काम नहीं करता,
लेकिन बिजली बिल भी इतना आता है कि वह हमें आर्थिक नुकसानी झेलना पड़ती है,लेकिन क्या करें खानदानी कार्य सौंपा गया तो उसे तो पूरा करना ही पड़ता है ।
दिमाग तो इतना चलता है कि कोई सी भी चीज इतनी बढि़या मिट्टी से बना देते हैं। वह आकर्षण करती है। वह कहते हैं पहले चॉक से हम दीपक मटके बनाते थे,लेकिन मैं मजबूर होने से मुझे इलेक्ट्रॉनिक चॉक काइस्तेमाल करना पड़ता है ।
मेरा पैर काम नहीं करता,
लेकिन बिजली बिल भी इतना आता है कि वह हमें आर्थिक नुकसानी झेलना पड़ती है,लेकिन क्या करें खानदानी कार्य सौंपा गया तो उसे तो पूरा करना ही पड़ता है ।