scriptअस्सी व नब्बे के दशक में बनाए फिल्मी पोस्टर आज भी याद करते हैं लोग | Film posters made in the eighties and nineties still remember people | Patrika News

अस्सी व नब्बे के दशक में बनाए फिल्मी पोस्टर आज भी याद करते हैं लोग

locationजोधपुरPublished: Apr 15, 2021 10:24:38 am

Submitted by:

Nandkishor Sharma

 
15 अप्रेल- विश्व कला दिवस

अस्सी व नब्बे के दशक में बनाए फिल्मी पोस्टर आज भी याद करते हैं लोग

अस्सी व नब्बे के दशक में बनाए फिल्मी पोस्टर आज भी याद करते हैं लोग

जोधपुर. फ्लैक्स के जमाने में फिल्मी पोस्टर व चुनावों के दौरान राजनेताओं के विशाल होर्डिंग आदि बनाने वाले कलाकारों की रोजमर्रा की जिंदगी में अब पूरी तरह बदलाव आ चुका है। छोटे मोटे पेंटर तो पेंटिंग के पेशे को ही अलविदा कह चुके हैं। कुछ पेंटर्स ने बदलाव की बयार के साथ कदमताल मिलाते हुए अपना कार्य तकनीकी से जोड़ रखा है। विश्वकला दिवस की पूर्व संध्या पर सत्तर, अस्सी व नब्बे के दशक में जोधपुर के सिनेमा हॉल और प्रमुख चौराहों स्थलों पर फिल्मी कलाकारों के विशाल कट आउट व पोस्टर बनाने वाले जोधपुर के चुनिंदा वरिष्ठ पेंटर्स से पत्रिका ने बातचीत की।
शोहरत मिली पैसा नहीं : पेंटर मदन .
मुझे बचपन से ही पेंटिंग करने का शौक था इसलिए अपने पिता के साथ 1978 में पढ़ाई छोड़कर पेंटिंग सीखना प्रारंभ कर दिया। पिता विख्यात चित्रकार कन्हैयालाल ‘कनूजी आर्टिस्टÓ भी 1948 से फिल्मों के पोस्टर बनाते थे। पिताजी की ओर से वर्ष 1960 में चित्रा सिनेमा में प्रदर्शित मुगले-आजम का बनाया कट आउट अभी तक सहेज कर रखा है। विरासत में मिले हुनर की बदौलत शोहरत व सम्मान खूब मिला लेकिन पैसा उतना नहीं मिला। हमारी ओलम्पिक सिनेमा परिसर ही राजस्थान की सबसे बड़ी कार्यशाला थी जहां पोस्टर का निर्माण होता था। जब हम पोस्टर बनाते तो बड़ी संख्या में लोग उसे देखने आते थे। सत्तर से नब्बे के दशक में जोधपुर के चारभुजा, आनंद, ओलम्पिक, मिनर्वा, स्टेडियम, कोहिनूर, कल्पतरू व नसरानी सिनेमा हॉल पर लगने वाले फिल्मी पोस्टर लोग आज भी याद करते हैं। नब्बे के दशक में वीडियो आने पर सिनेमा का खराब दौर शुरू हुआ जिसके चलते विज्ञापन बजट कम होने से श्रमिक पेंटरों का रोजगार छिन गया। बड़े आर्टिस्टों ने जरूर कुछ उनकी मदद की लेकिन सरकार से कुछ मदद नहीं मिली। फिर इस व्यवसाय में मंदी आने के कारण रियल स्टीक पेंटिंग का कार्य आरंभ कर दिया तथा इसके साथ रंगीन पोर्टेड का काम सीख कर इसकी पेंटिंग शुरू कर दी।
पोस्टर देखकर दर्शक सिनेमाघरों में खिंचे चले आते थे : पेंटर बाबू .

किसी जमाने में फिल्मी गीत संगीत के साथ पोस्टर को भी सफलता का पर्याय माना जाता था। रंगबिरंगे, खूबसूरत , कलात्मक व आकर्षक पोस्टर्स में अभिनेता और अभिनेत्रियों के कटआउट और कोलाज देख कर लोग अभिभूत हो उठते थे। फिल्मी पोस्टर सिनेमाघरों के बाहर और प्रमुख चौराहों व सार्वजनिक स्थानों पर लगाए जाते थे और दर्शक उन्हें देख कर सिनेमाघरों में खिंचे चले आते थे। जोधपुर में अस्सी के दशक से फिल्मी पोस्टर बनाने वाले 74 वर्षीय पेंटर आबिद हुसैन उर्फ ‘पेंटर बाबू भाईÓ ने बताया कि फ्लेक्स मशीनों के आने का असर पेंटरों की रोजमर्रा की जिंदगी पर पड़ा । प्रिंटिंग मशीन्स और कम्प्यूटर के आने बाद हाथों के बने फिल्मी पोस्टर्स के दिन लद गए हैं। समय के बदलाव को देखते हुए पुत्र वाहिद, खालिद और जिगर के साथ बैनर फ्लेक्स बनाने का काम शुरू किया। अब कम्प्यूटर के जरिए बैनर व पोस्टर्स बनाना कुछ मिनटों का ही खेल है लेकिन कोरोना महामारी ने व्यवसाय को बुरी तरह प्रभावित किया है।
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