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Holi 2020 : राजस्थानी काव्य में होली के रंग

locationजोधपुरPublished: Mar 09, 2020 05:59:52 pm

Submitted by:

M I Zahir

जोधपुर ( jodhpur news current news ) . होली ( Holi 2020 ) के रंग खुशियां लाते हैं। इंद्रधनुषी छटा से सजी लोक की होली ( Happy Holi 2020 ) का अपना ही मजा है। राजस्थानी काव्य ( rajasthani poetry ) में खूबसूरत कविताएं लिखी गई हैं। होली ( Holi Latest News ) पर रोचक और , मनोरंजक राजस्थानी भाषा की कविताओं के बारे में बता रही हैं जोधपुर के जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय के राजस्थानी विभाग की अध्यक्ष साहित्यकार ( Litterateur ) डॉ. धनन्जया अमरावत। पढि़ए उन्हीं के शब्दों में ( Latest NRI news in hindi ) :

Holi 2020: Colors of Holi in Rajasthani poetry

Holi 2020: Colors of Holi in Rajasthani poetry

जोधपुर ( jodhpur news current news ) . होली ( Holi 2020 ) के रंग खुशियां लाते हैं। इंद्रधनुषी छटा से सजी लोक की होली ( Happy holi 2020 ) का अपना ही मजा है। राजस्थानी काव्य ( rajasthani poetry ) में खूबसूरत कविताएं लिखी गई हैं। होली ( Holi Latest News ) पर रोचक, मनोरंजक और ज्ञानवृद्धक राजस्थानी भाषा की कविताओं के बारे में बता रही हैं जोधपुर के जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय के राजस्थानी विभाग की अध्यक्ष साहित्यकार ( Litterateur ) डॉ. धनन्जया अमरावत। पढि़ए उन्हीं के शब्दों में ( Latest NRI news in hindi ):

हर समाज की अपनी एक अलग अनूठी पहचान होती है और इस पहचान का आधार होती है उस समाज विशेष की संस्कृति और इसी संस्कृति के मजबूत पक्ष हैं इसके पर्व, उत्सव-त्योहार। राजस्थानी जन जीवन में भी फाल्गुन व चैत्र मास लोकोत्सवों की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इन महीनों की शुरुआत से ही जैसे पर्वों की झड़ी सी लग जाती है, जिसमें प्रमुख है मानव मन को आह्लादित-उमंगित करता सतरंगी छटा बिखेरता होलिकोत्सव। इस उत्सव का वैशिष्ट्य इसलिए है कि होलिका दहन के रूप में यह त्योहार अहम भाव के नाश की ओर प्रेरित करता है। साथ ही चंग की थापों और लूर-फाग की स्वर लहरियों से हर किसी को आनंदित कर सम्मोहित भी करता है।
रंगों भरा यह त्योहार मनाने का तरीका भी यहां अंचलगत अपनी अलग विशेषता रखता है। कहीं लट्ठमार होली तो कहीं कौड़ा मार होली, कहीं पत्थर मार होली तो कहीं पिचकारियों की तीखी मार। कहीं अल्हड़-मस्त जवानी गुलाल अबीर से सरोबार तो कहीं ढोल-मंजीरे। राजस्थानी जन जीवन की इसी रंगमयी झांकी को यहां के कवियों ने अपने शब्दों में ढाला है। आधुनिक राजस्थानी काव्य में होली के भांति-भांति के सुंदर चित्र देखने को मिलते हैं। इन कवियों ने अपने काव्य में जीवन के लगभग सभी रंग उकेरे हैं। लोक ने जहां अपने गीतिकाव्य में पारिवारिक सुख-समृद्धि, वैयक्तिक कत्र्तव्य बोध के प्रति सजगता राष्ट्रीय-चेतना, व्यंग्य, स्त्री सुलभ आभूषण प्रियता, संयोगावस्था व विरहणी की विरह-व्यथा के चित्र उतारे हैं, तो आधुनिक राजस्थानी कवि भी अपने काव्य को समकालीनता से जोड़ते हुए समरसता अपना कर बैर भाव भूलने का संदेश देते हैं:
फागुण चंग बजावतो, छायौ च्यारूं मेर।
ढोलक, मादळ थाप पें,मेटो सगळा बैर।। ( विपिन जारोली)

सर्वविदित है कि प्रकृति और मानव का संबंध आत्मा व शरीर वाला रहा है। सावन में प्रकृति के रूप का सुंदर व चित्रात्मक वर्णन करते हुए भी कवि होली का बिंब प्रस्तुत करता है कि कैसे आकाश रूपी गैरिया’ ने धरती रूपी स्त्री को रंगने की जबरदस्त तैयारी कर रखी है।
रंग रमण रै चाव सूं, गैरियो – आकास
घोळ राख्या है रंग-रंगीला बादळी कड़ाव
पून री पिचकारियां सूं,बौछारां री धारां सूं
रंग बरसै धरती गणगौर पर (लक्ष्मीनारायण रंगा)

वहीं धरती भी स्त्री-सुलभ लज्जा बस खड़ी-खड़ी रंगों की बौछार में भीगती ही जा रही है:
सरम डूबी धरती
माथौ झुकायां
भीजती जायरी है
रंगीजती जायरी है। (लक्ष्मीनारायण रंगा)
और ऐसे में पति-पत्नी को प्रेम-रस में डुबोता ठिठोली करता यह त्योहार, सदा के लिए व्यक्ति की मीठी स्मृतियों का हिस्सा बन जाता है, विरह अवस्था में ये सुखद स्मृतियां इन्हें अपने भाग्य तक को कोसने पर मजबूर कर देती हैं:
पुन माड़ा परदेसां बस्या, देसड़ला हरख होळी सजै
न्यूत बुलावै धणियाणी, छुट्टी मिले तो हरि भजै। ( विनोद सारस्वत )

तो कभी यही स्मृतियाँ कल्पना का पुट लेकर प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से सजीव हो उठती हैं:
चांद म्हारौ साजन, ले तारां री टोळी
चढ़ आयो डागळिये, खेलण ने होळी
नजरां नजर सूं नजर नै टंटोळी
करबा लाग्यौ बैरी म्हासूं ठिठोळी (कैलाश मंडेला)

तन मन में मस्ती, आनंद-उत्साह, धमालों की गूंज, गलियों में उड़ती गुलाल, रंग से सराबोर कान्ह रूपी छैलै-अलबेले मदमस्त ये कान्हा एक दूसरे को रंगों से लालम-लाल होने के लिए पुकारते हैं तो ऐसे में राधा रूपी गोरियां भी कब पीछे रहने वाली हैं? वे भी ठिठोली करती हुई जोरा-जोरी पर उतर आती हैं :
छैला अलबैला मद-गैला
रंग रेलां री लार है
हेला पर हेला देवै, अधगैला दैवे बारंबार है
आ रे आज्या संग रा साथी
हो ज्या लालम लाल रे
तन में मस्ती-मन में मस्ती
गळियां उड़ै गुलाल रै
गोरी-गोरी करै ठिठोली, होवै जोरा-जोरी रै ( कल्याणसिंह राजावत )
प्रेम की गहनता तब और भी अधिक बढ़ जाती है, जब होली का मदमस्त वातावरण यादों को कुछ यूं रंगों से भर देता है :

जदबी देखूं छूं म्हूं,-गरियाळा में होळी का रंग
देहळ पर ऊभी निजर आवै छै तूं
कै जस्यां ही खडूंगों म्हूं थारै सांम्है सूं
मुट्ठी भर गुलाल उछाल देगी तूं
अर म्हूं गाबां पे हैरतो रह जाऊंगो थारो रंग
कवि अपनी-लेखनी को हास्य रस में डुबो कर होली के बहाने इस त्योहार का बैजां फायदा उठाने वालों पर करारा व्यंग्य करने से भी नहीं चूकता है:

रंग- रंगीलै इण तिंवार में, रंग-रंगण री खुली छूट है
रंग नीं मिळै तो, कादा-कीचड़ री नाळ्यां भी अखूट है (डॅा.ओम नागर)
हास परिहास और मनो विनोद के बिना तो होली अधूरी सी प्रतीत होती है। होली की मस्ती-ठिठोली के बीच ही भांग के नशेडिय़ों पर व्यंग्य करता कवि कहता है:

फागणियै में भांग घुटै, पीवै सगळा चाव सूं
दुनिया लागै मुट्ठी में, भांग री भुंवाळ में
हियौ घणौ हिलौरा खावै, सुरगां में गोता लगावै
लिखारा नै मिले नूंवी सूझ, कलम री भुंवाळ सूं (विनोद सारस्वत)
होली के परंपरागत काव्यानुरूप ही राजस्थानी काव्य के कुशल-चितेरों ने होली की मस्ती के साथ ही देशहित और देश-प्रेम को भी विस्मृत नही किया है, बल्कि सभी देशवासियों को जात-पांत, बैर-भाव, द्वैष मिटाने, समता, आपसी
भाईचारे की लहलहाती खेती करने के लिए राह दिखा कर देश के प्रति अपने नैतिक उत्तरदायित्व का भी निर्वाह किया है:
बासंती जोबण निरख, रेहगी कुदरत दंग
संप्रदाय विष पीयनै, खेलों समता रंग ।।
कूड़ौ-कचरौ, भेद रो, नाखौ होळी मांय
सदभावां रा गीतड़ा, गावौ हरख बधाय।। ( विपिन जारोली)

इससे भी आगे बढ़ कर कवि वैश्विक स्तर पर भारत की अमिट छाप अंकित करने को उद्यत होकर आह्वान करता है और जन-जन को देश-प्रेम की ओर प्रवृत्त करता है:
होळी खेलां चाव सूं, डालां रंग अनूप
छापां हिवड़े विश्व रै, भारत रूप सरूप ।। ( विपिन जारोली)

बहरहाल आधुनिक राजस्थानी कवियों ने प्रेम व सदभाव के प्रतीक इस त्योहार के चित्रण में अपने काव्य में प्रेम के सभी रंग उतारे हैं, क्या प्रकृति प्रेम? क्या दांपत्य प्रेम? क्या देश प्रेम? सभी रंग यहां मुखरित हो उठे हैं। साथ ही जहां कहीं भी उसे कुछ अनुचित लगा है, तो वहां भी वह अपने व्यंग्य बाणों की बौछार किए बिना नहीं रहा है। ऐसे एकात्म भाव विश्व रूप व समदर्शी भाव प्रधान ऐतिहासिक व सांस्कृतिक होलिकोत्सव की प्रतिवर्ष जन-जन को हदभांत उडीक रहती है।

(जैसा लेखिका डॉ. धनन्जया अमरावत ने पत्रिका के एम आई जाहिर को बताया।)

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