इतिहासविद् डॉ. महेन्द्रसिंह तंवर ‘खेतासर’ के अनुसार बंधेज की रंगाई और बंधाई का कार्य 12 वीं शताब्दी में गुजरात में बाघेला राजाओं के शासनकाल में पल्लवित और पोषित हुआ। गुजरात के बाद जोधपुर के शासकों ने 18वीं शताब्दी में इस कला को संरक्षण प्रदान किया। जोधपुर में बंधेज तैयार करने वाले चड़वा (रंगरेज), चुंदड़ीगर व छीपा परिवार के करीब एक हजार लोग हैं। जयपुर के महाराजा सवाईसिंह ने भी सन 1770 में विशेष रंगखाना स्थापित कर बंधेज कला को प्रोत्साहन दिया।
त्योहार-उत्सव व खुशियों के मौकों पर महिलाओं की ओर से केसरिया, नीले और लाल रंग की साडिय़ा, दुपट्टे पहनने का प्रचलन है। पुरुष अलग-अलग रंग के बंधेज साफे विवाह और खुशी के मौके पर पहनते हैं। जोधपुर में निर्मित बंधेज की अन्य किस्म जैसे पोमचा, पीलिया, पतंगभात, पचरंगा, सतरंगा, लहरिया, मोठड़ा, चूंदड़ी भी काफी लोकप्रिय है। फैशन के दौर में बंधेज का स्कार्फ का प्रचलन भी बढ़ा है।
कारीगर को अपनी पैनी नजर से कपड़े के हिस्सों को बारीकी से धागों से बांधकर अलग-अलग आकृतियां बनानी पड़ती है। फिर कपड़ों की रंगाई तथा डाई होने पर गोलाकार में बंधे धागों को तोडकऱ पूरे कपड़े को चरक के बाद खोलने पर बंधेज बनता है। बारीक बंधेज तैयार करने में काफी समय और मेहनत लगती है।
मशीनी प्रिंट की प्रतिस्पद्र्धा के कारण अब केवल ग्रामीण क्षेत्रों में ही बंधेज के कारीगर नाममात्र ही बचे है। यदि इस कला को बचाना है तो सरकार को प्रशिक्षण संस्थान खोलना चाहिए। सूरत आदि शहरों में मशीनों से तैयार बंधेज के कपड़ों का प्रयोग अधिक होने से परम्परागत शैली में बनने वाले परिधान बंधेज का अस्तित्व खतरे में है।