40 गांवों की छह हजार महिलाओं को बांटे
बोथरा बताते हैं कि उन्होंने 2015 में सैनेटरी नैपकिन बनाने की मशीन लगाई थी। छह महीने तो केवल प्रोडक्ट बनाने में ही लग गए। इसके बाद अक्टूबर 2016 में अहमदाबाद में फैक्ट्री शुरू की। उन्होंने अपने साथी के नाम से एक कंपनी बनाई और देश के सबसे बड़े स्वयंसेवी संस्थान के साथ मिलकर झारखंड के 40 गांवों में नेपकिन वितरित किए। अब तक छह हजार महिलाओं को सैनेटरी नैपकिन बांट चुके हैं। उल्लेखनीय है कि अब भी भारत में 16 प्रतिशत महिलाएं ही सैनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं। अधिकांश महिलाएं अधिक कीमत के चलते सेनेटरी नैपकिन नहीं खरीद पाती। कई ऐसी भी हैं, जिनको इसकी जानकारी तक नहीं है।
ऐसे बनते हैं बायोडिग्रेडेबल नैपकिन्स ये नैपकिन केले के पेड़ के रेशे से बनाए जाते हैं। ये इस्तेमाल के बाद आसानी से नष्ट हो जाते हैं। सबसे खास बात कि ये खाद और बायोगैस की तरह उपयोग में आ जाते हैं। इससे वायु में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा नहीं बढ़ती। बाजार से महंगे दामों में मिलने वाले पैड्स प्लास्टिक फाइबर से बने होते हैं, जो नष्ट नहीं होते। जलाया भी जाए तो इनमें मौजूद तत्व हवा में कार्बन डाई ऑक्साइड फैलाते हैं। इससे वायु दूषित होती है। इधर, बायोडिग्रेडेबल नैपकिन बहुत मुलायम होते हैं। इनसे कैंसर और इंफेक्शन का खतरा भी नहीं होता।