जोधपुर

मेहरानगढ़ हादसा – 11 साल बाद भी न भूलने वाली सुबह के दर्द का मंजर लिफाफे में बंद

– 216 तो उस दिन मरे, हजारों तिल-तिलकर रोज मर रहे हैं- 11 साल बाद भी बड़ा सवाल : मेहरानगढ़ हादसे (Mehrangarh incident) का जिम्मेदार कौन?- अब परिजनों की न्यायालय से अंतिम आस

जोधपुरAug 02, 2019 / 08:36 pm

जय कुमार भाटी

Who is responsible for the Mehrangarh incident

जोधपुर. शारदीय नवरात्रा की वह नहीं भूलने वाली सुबह आज भी उन लोगों के जेहन में हैं, उन्होंने हादसे में अपनों को खोया है। किसी का बेटा तो किसी के पिता व भाई, कभी लौटकर नहीं आए। दर्द आज भी इतना गहरा है कि याद करें तो रातों की नींद उड़ जाती है। एक ऐसा जख्म, जिस पर आश्वासनों के मरहम तो खूब लगाए गए लेकिन पूरा इलाज करने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पाया।
 

मेहरानगढ़ हादसे (Mehrangarh incident) को एक दशक से अधिक समय हो गया लेकिन हादसे में अपने प्रियजनों को खोने वाले परिवारों का दर्द आज भी इन्हें सालता है। हादसे के समय जो नवजात थे, उनका बचपन मां से यही पूछते हुए गुजर गया कि पापा कब आएंगे…राखी के त्योहार पर कई बहनों के आंसू बह जाते हैं…जिस घर का एकमात्र चिराग बुझ गया, वे अभागे माता-पिता भी बस बेबस हैं। इस दर्द के बीच सवाल एक ही है कि हादसे के लिए आखिर कौन थे जिम्मेदार? उन पर क्या कार्रवाई? लेकिन अफसोस…कार्रवाई तो दूर, सरकार हादसे का कारण तक बताने की स्थिति में भी नहीं है। इस घटना की जांच के लिए गठित चौपड़ा आयोग सालों पहले अपनी रिपोर्ट सौंप चुका है। अब न्याय के मंदिर से अंतिम उम्मीद की आस बची है। हादसे में अपनों को गंवा चुके परिजनों से पत्रिका ने इस संबंध में बातचीत की तो अधिकतर ने यही कहा कि उन्होंने तो अपने प्रियजनों को खो दिया, लेकिन 216 जनों की मौत के दोषियों के बारे में जानने का तो उन्हें हक है ना! सरकार कार्रवाई क्यों नहीं चाहती?
 

 

जोधपुर के काले अध्याय से पर्दा हटना चाहिए
मेहरानगढ़ हादसे (Mehrangarh incident) में अपना सुहाग खोने वाली प्रतापनगर हुडक़ो कॉलोनी निवासी मोहिनी चौहान का कहना है कि उनके जीवन में कभी ना भूलने वाला सबसे दर्दनाक मेहरानगढ़ हादसा रहा। सिर्फ पति की यादों और इकलौते 12 वर्षीय पुत्र हरीश के साथ जीवन गुजार रही हैं। हादसे में पति दुर्गादास की मौत के बाद मोहिनी का तो 30 सितम्बर को ही जीवन से मोह भंग हो गया था लेकिन बच्चे हरीश को एक काबिल इंसान बनाने के लिए हिम्मत नहीं हारी। सिलाई-कसीदाकारी से दो वक्त की रोटी कमाना शुरू किया। बूढ़े ससुर भी जूतियां गांठ कर बच्चे की फीस के इंतजाम में सहयोग करते हैं। लेकिन 11 साल बीतने के बाद भी मेहरानगढ़ हादसे की जांच के लिए गठित जस्टिस जसराज चोपड़ा आयोग की जांच रिपोर्ट अभी तक सामने नहीं आने का मलाल जरूर है। मोहिनी का कहना है कि हादसे को 11 साल होने को हैं लेकिन जोधपुर ही नहीं प्रदेश के इतिहास का काला अध्याय बने मेहरानगढ़ हादसे में 216 लोगों की जान कैसे गई, कोई तो बताए।
 

 

रिपोर्ट सार्वजनिक करने में डर कैसा?
संगीता की आंखों में पिछले एक दशक से हर दिन आंसू छलकते हैं। मेहरानगढ़ हादसा जब हुआ तब विवाह को 23 माह ही तो हुए थे। उसका बेटा रामकिशोर महज 8 माह का था। वह हर रोज पूछता कि पापा कहां गए है और कब तक वापस आएंगे? हादसे में पति के साथ देवर महेश भी कालकवलित हो गया था। ऐसे में घर का खर्च चलाना भी मुश्किल हो गया था। आज भी पति दुर्गाराम की निशानी और ससुराल वालों के सहारे संभलने की कोशिश कर रही है। जिस उम्र में बुजुर्ग ससुर कालूराम और सास राधादेवी को उनके दो पुत्रों का सहारा मिलना था, तब उन्हें पुत्रवधु संगीता और पौत्र रामकिशोर के पालन पोषण के साथ उनकी आंखों में झलकते दर्द को देखते हुए दिन गुजारने पड़ रहे हैं। मेहरानगढ़ हादसे की रिपार्ट के बारे में संगीता का कहना है कि दोषियों को सजा का इंतजार करते- करते थक चुके हैं। रिपोर्ट आ गई तो फिर सार्वजनिक करने में डर कैसा?
 

 

कोर्ट सजा नहीं देगा तो फिर कौन करेगा न्याय
शारदीय नवरात्र का पहला दिन 30 सितंबर 2008 को मेहरानगढ़ हादसे में अपने पुत्र विजेश को खो चुकी मां सदा चावला आज भी उस घटना के दृश्य को याद कर फफक पड़ती है। कलाल कॉलोनी मेहरानगढ़ हादसे में सबसे ज्यादा युवाओं को खोने वाली ऐसी बस्ती है जिसे लोग चाहकर भी नहीं भुला सके हैं। सदा ने बताया, मेरी पुत्रवधु उस समय गर्भवती थी लेकिन हादसे के बाद जैसे पूरा परिवार टूट सा गया। परिवार को तोडऩे के दोषी लोगों को सजा मिलनी चाहिए। कोर्ट सजा नहीं दे सकता तो फिर कौन सजा देगा? अब तो न्यायालय से ही न्याय की आस है।
 

 

जीने का सहारा छूट गया
मेहरानगढ़ दुखान्तिका में मेरे दोनों पुत्र दुर्गाराम और महेश भी शामिल थे। हमारे एकमात्र जीने का सहारा हमारे से छिन गया। हादसे का क्या कारण था इसका पता तो कम से कम हमारे मरने से पहले चलना ही चाहिए। यदि कोई दोषी है तो न्यायालय उसे कड़ी सजा दे ताकि भविष्य में ऐसे किसी मां की कोख ना उजड़ सके।
राधादेवी -महामंदिर निवासी, जिन्होंने अपने दो जिगर के टुकड़े खोए
 

 

अन्याय तो तुरंत, न्याय 11 साल बाद भी लिफाफे में बंद
उस दिन की दर्दनाक चित्कार, आंसू, मातम और 216 घरों के जो चिराग बुझे थे उसकी जिम्मेदारी आखिरकार किसकी है। हर मौत का न्याय मुआवजा नहीं हो सकता। यदि ऐसा नहीं होता है तो फिर राज्य सरकार आयोग के गठन कर क्यों फिजुल में करोड़ों रुपए खर्च करती है। अन्याय तो तुरंत हुआ लेकिन न्याय 11 साल बाद भी लिफाफे में क्यों घूम रहा है? हादसे के दिन क्या हुआ, कारणों का पता चलना ही चाहिए। सरकार को जिंदा वोटों से मतलब है उन्हें मृत आत्माओं से कोई लेना देना नहीं है। अब तो सिर्फ न्यायालय पर ही भरोसा बचा है।
विजय राव, संयोजक, मेहरानगढ़ दुखान्तिका मंच

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