बावजूद नहीं मिलता काम
कंबल से शरीर क्या हाथ तक निकालने की हिम्मत नहीं जुटा रहे थे तो शहर के दर्जन भर चैराहों पर सैकड़ों दिहाड़ी मजूदर एक पतली चादर ओढ़े खड़े थे। एक हाथ में कुदाली और दूसरे में छिट्टा (टोकरी)। ठंड के कारण दूर तक पसरे सन्नाटे में आंखें किसी को ढूंढ रही थी। जो उसे काम दे सके। गर्म हवाओं के बीच कार में बैठे आते-जाते लोग बस यही कर रह रहे थे,अरे,इसे ठंड नहीं लगती है। मगर रोटी की मजबूरी इस ठंड को टिकने नहीं दे रही थी। उसके चिथड़े कंबल और चादरों से टकराकर लौट जा रही थी। उनका हौसला जब जवाब दे जाता जब घंटों खड़ा रहने के बावजूद काम नहीं मिलता।
नहीं जल रहे चूल्हे
सोमवार की सुबह करीब सात बजे पत्रिका टीम नवाबगंज स्थित मजदूरों की मंडी पर गई। यहां करीब दो सौ से ज्यादा मजदूर रोजगार के इंतजार में ठिठुरन भरी ठंड में खड़े थे। पर ग्राहकों के नहीं आने से उनके चेहरे में निराशा साफ देखी जा कसती है। फतेहपुर के खागा निवासी मजदूर रामराज कहते हैं कि घर में पत्नी व तीन बेटियां हैं। 45 दिन से रोजगार नहीं मिला जिसके चलते घर की चुल्हे की लौ मद्धिम पड़ने लगी है।यही हाल रिक्सा-ठेला चालकों का है। सड़क के किनारे सब्जी का दुकान लगाने वाले हो या खोमचा वाले। सबकी जिदगी पर यह ठंड भारी पड़ रहा है।
काम नहीं मिलता है तो मरन
असामान्य ठंड में बेहद सामान्य दिख रहे मजदूर विशम्भर ने बताया कि ठंड से कांपते रहेंगे तो कौन ले जाएगा काम कराने। साहब, ठंड तो लगती ही है मगर काम के लिए कुछ और दिखाना होता है। कहा कि शीतलहर ऐसी है कि हर रोज काम नहीं मिल पाता है। दूर से आते हैं,काम नहीं मिलता है तो मरन (बहुत कष्ट) हो जाता है। विभम्भर बताते हैं कि वह भी फतेहपुर के अमौली ब्लाॅक से कानपुर में मजदूरी कर अपने परिवार को पाल रहे हैं। कहते हैं, ग्राम प्रधान ने तो मनरेगा में जाॅब कार्ड बना रखा है पर काम नहीं देता। इसी के चलते वहां के दर्जनों गांव के ग्रामीण शहर के कई इलाकों में ढेरा जमाए हुए हैं।
रोज कमाना-खाना
आजमपुर गढ़वा निवासी राजू पासवाल ने कहा कि रोज कमाते हैं, रोज खाते हैं। नहीं कमाएंगे तो खाएंगे क्या? फिर ठंड हो या गर्मी। घर में एक से दो दिन तक ही खुराक रहती है। एक दिन काम नहीं मिला तो तीसरे दिन चूल्हा ठप। बताया कि अकेले हों तो न तो ठंड या बरसात देखें। अकेले कहीं पेट भर जाएगा। छह लोगों के परिवार के लिए तो हर रोज कमाना होगा। गांव में काम नहीं है इसलिए यहां आना पड़ता है। अमौली से आए ग्रामीण छोटे कश्यप ने कहा कि आने की भी जल्दी रहती है ताकि पहले आएं तो काम मिले। सबेरे पांच बजे ही घर से निकलना पड़ता है। इसके बावजूद काम मिलेन की कोई गारंटी नहीं है।
इन पर भी पड़ी ठंड की मार
ठंड उन लोगों की जिदगी पर भी भारी पड़ रही है, जिनका न तो कही आशियाना है और नहीं तन ढकने के लिए बदन पर कपड़े। बस पड़ाव, रेलवे स्टेशन व सार्वजनिक स्थलों पर सालों भर कपड़े या पोलिथिन का आशियान बना कर रहने वाले गरीबों के लिए न तो जेठ की तपती धूप का फर्क पड़ता है और नहीं भादो की मूसलाधार बारिश का ही। फिर जनवरी की सर्द रात ही क्यों नहीं? दुनियां में हम आए है तो जीना ही पड़ेगा। बस इसी दर्द के साथ लोग जीते है। आजाद नगर स्थित सड़क के किनारे झोपड़ी में जिंदगी काट रहे रिजवान बताते हैं कि 5 साल के बाद पहली बार ठंड ने उनके जीवन को अंधकार में डाल दिया है। एक वक्त की रोटी के लाले पड़े हैं।