ऐसे करते थे प्रचार
पूर्व विधायक बताते हैं कि कार्यकर्ता ही नेताओं को चुनाव लड़ाते थे। गांव में चैपाल सजती थीं। लोग अपने-अपने नेता को चुनाव लड़के लिए प्रेरित करता। चुनावी अखाड़े में उतरते ही कार्यकर्ता घर से गुड़ और सत्तू लेकर निकल पड़ते। कई-कई दिनों प्रचार करते। भूंख लगती तो गुड़ के सत्तू खाते। पूर्व विधायक बताते हैं कि पहले हम बिना खर्च के विधायक चुने गए। प्रचार के लिए हमें एक मित्र ने साइकिल दी। सादकिल के कॅरियर पर भोंपू बांधकर निकल पड़ते और इसके जरिए ही अपना टैम्पों हाई करते।
तीन हजार वापस किए
पूर्व विधायक भगवती ने बताया कि 1952 के विधानसभा चुनाव में पीएसपी पार्टी ने कानपुर के जनरलगंज सीट से हमें टिकट दिया, था। लेकिन हम चुनाव हार गया। इसके बाद 1957 के विस चुनाव में पीएसपी पार्टी ने दोबारा से उन्नाव के बारासगवर सीट से चुनाव लड़ाया और हम विधायक चुने गए। इस चुनाव में ग्रामूीणों ने चंदा कर 5 हजार जुटाए। इस पैसे का बड़ा हिस्सा कार्यकर्ताओं को बांट दिया। हमारे पास तीन हजार रूपए बच गए। बची रकम ग्रामीणों के विकास में लगा दिए।
गुम हो गए समर्पित कार्यकर्ता
भगवती विशारद कहते हैं कि उस वक्त पार्टी के लिए कार्यकर्ता समर्पित रहते थे। अपने-अपने उम्मीदवार को जितानें के लिए दिन-रात एक करते थे। पहले के कार्यकर्ता बिना स्वार्थ के जुड़ते थे, लेकिन अब हालात इसके विपरीत हैं। अब तो पैसे के बल पर जनसभाओं में लोग बुलाए जाते हैं। जो दल मालामाल, खर्चीला उम्मीदवार होगा, उसी के बाद कार्यकर्ताओं की फौज होगी। ये ऐसे कार्यकर्ता होते हैं जो सिर्फ पैसे के लिए ही प्रचार करते हैं। पूर्व विधायक कहते हैं, पहले प्रचार सिर्फ प्रत्याशी को जीत दिलानें तक सीमित नहीं था। हर कार्यकर्ता के लिए पार्टी की एक अगल पहचान बनाना भी मकसद होता था।