तब भरा नामांकन
1967 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने कवि नीरज को कानपुर से टिकट देने का वादा किया था, लेकिन अंतिम समय पर कांग्रेस ने उन्हें टिकट नही दिया। इस बात से नाराज उनके दोस्तों और छात्र संघ ने उन्हें निर्दलीय चुनावी मैदान पर उतारा था। इसके लिए सभी ने चंदा करके रुपया इकठ्ठा किया था। दोस्तों के कहने पर गोपाल नीरज यह चुनाव लड़ने के लिए राजी हो गए थे। जगह-जगह नुक्कड़ नाटक किए गए। नीरज ने बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर चुनाव लड़े थे। कानपुर की जनता से उन्हें बहुत प्यार मिला। जब चुनाव का परिणाम आया तो बनर्जी ने जीत हासिल की और कांग्रेस का कैंडीडेट दूसरे नंबर था, जबकि गोपाल दास नीरज तीसरे नंबर थे।
कांग्रेस के चलते हारे चुनाव
कवि नीरज जी के मित्र राजीव गुप्ता बताते हैं, दरअसल उस समय के कांग्रेस नेतृत्व का गेम प्लान था। कांग्रेस चाहती थी कि नीरज चुनाव लड़ें। नीरज मान गए तो इसकी जानकारी कांग्रेस नेतृत्व को दी गयी, पर ऐन मौके पर कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया। दृढ़संकल्प से भरे नीरज ने तय किया कि अब वे निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे। वे निर्दलीय मैदान में उतर गए। जोरदार चुनाव अभियान चला। पूरे शहर में व्यापक चर्चा रही। नीरज चुनाव तो नहीं जीते, किन्तु जनता का दिल जीतने में सफल रहे। हां, उन्हें धोखा देने वाली कांग्रेस भी यह चुनाव नहीं जीत सकी। राजीव गुप्ता बताते हैं कि नीरज को और अधिक सफलता मिलती, किन्तु मतदान के ठीक पहले उनके चुनाव मैदान से हटने की चर्चा हो गयी और इसका प्रतिकूल असर पड़ा।
सभाओं मे उमड़ी भीड़
नीरज का चुनाव अभियान विविधता भरा था। वह कविता और भाषण का संगम होता था। उनकी सभाओं में जमकर भीड़ उमड़ती थी। लोग उन्हें सुनने को लालायित रहते। नीरज अपने अंदाज में लोगों से संवाद करते, फिर वोट मांगते समय साफ कर देते कि उन्हें चोरों, भ्रष्टाचारियों व अपराधियों के वोट नहीं चाहिए। कानपुर का स्वर्णिम व क्रांतिकारी अतीत याद दिलाते हुए वे कहते थे कि जनप्रतिनिधि का चुनाव करने से पहले उसके आचरण को परखें। कई सभाओं में उन्होंने कहा कि जब तक अच्छे लोग राजनीति में नहीं आएंगे, तब तक दागी ही जनप्रतिनिधि बनते रहेंगे। नीरज चुनाव तो हार ही गए, राजनीति में गंदगी दूर करनी की उनकी इच्छा कभी खत्म नहीं हुई।