सब्जी की फसलों को कीड़ों से बचाने के लिए मादा कीटों के हॉरमोन से तैयार पेस्ट काम आएगा। इस पेस्ट की ओर नर कीट आकर्षित होंगे और चिपक कर बेहोश हो जाएंगे। इससे कीड़ों का प्रजनन रुक जाएगा और केमिकल से शरीर को किसी तरह का नुकसान भी नहीं पहुंचेगा। यह तकनीक पूरी तरह से सुरक्षित है।
मौसकी कीटों से कद्दू, ककड़ी, लौकी और तरोई आदि जमीन पर फैलने वाली सब्जियों के फसलों को अधिक नुकसान होता है। इनसे निपटने के लिए इस सस्ती तकनीक का ट्रायल किया जा चुका है। गंगा किनारे वाले इलाकों लखीमपुर खीरी, हरदोई, कन्नौज, कानपुर देहात आदि के सब्जी फार्मों में इसका परीक्षण सफल रहा है। चेन्नई की एक बड़ी कंपनी के अधिकारी इस तकनीक के रिजल्ट पर चर्चा करने विवि आ रहे हैं।
डॉ. राजीव का कहना है कि बैक्टेरोसेरा जैसे नर कीड़े आसानी से पकड़े जा सकते हैं। ये मामूली संक्रमण करते हैं मगर उससे सडऩ तेजी से होती है। इस कारण किसानों का भारी नुकसान होता है। उन इलाकों में ये कीड़े अधिक मिलते हैं, जहां जलभराव की स्थति होती है। डॉ. राजीव के मुताबिक सब्जी की फसल में फूल आने के साथ ही यह ट्रैपर रख दिया जाता है। कुछ कीड़े सब्जियों की पत्तियों और फूलों को नुकसान पहुंचाते हैं तो कुछ सिर्फ फलों को ही नुकसान पहुंचाते हैं। इस प्रयोग के बाद हम सब्जियों के पेड़ों को काफी हद तक सुरक्षित रख सकते हैं।
शोधकर्ता वैज्ञानिकों डॉ. राजीव और डॉ. भूपेन्द्र कुमार सिंह का दावा है कि अब तक कीड़ों को पकडऩे के लिए जो भी ट्रैपर उपलब्ध हैं, यह उससे कई गुना सस्ता और कारगर है। ट्रैपर बनाने में 30-40 रुपए का खर्च आता है। डॉ. राजीव का कहना है कि ग्रीस में नीम की खली और मादा कीड़ों से निकला हॉरमोन आदि मिलाकर एक पेस्ट तैयार किया जाता है। इसे एक फुट के वर्गाकार कार्ड बोर्ड पर लगा दिया जाता है। इसके ऊपर एक विशेष जालीनुमा बैग लगाया जाता है, जिसमें कीड़े घुस तो सकते हैं पर निकल नहीं सकते। इसे खेत के कोनों पर लगा दिया जाता है। एक एकड़ खेत में आठ से 10 ट्रैपर लगाना पर्याप्त होता है। एक हफ्ते में एक ट्रैपर में 7 से 8 सौ कीड़े पकड़ में आ जाते हैं। एक हफ्ते बाद ट्रैपर को बदलना होता है।