डीएवी कालेज में आंदोलन का चेहरा थे अटल कानपुर के डीएवी कॉलेज से राजनीति शास्त्र में एमए करने के बाद उन्होंने एलएलबी में प्रवेश लिया। इसके बाद उन्होंने कानपुर में ही एलएलबी की पढ़ी पूरी की। यह संयोग रहा कि उनके पिता भी उनके साथ ही एलएलबी के छात्र रहे। राजनीति में उनके सक्रिय होने के संकेत यहीं से दिखने लगे थे। पढाई के दौरान छात्र आंदोलनों में उनकी हमेशा सक्रिय और अग्रणी भूमिका रही। पढाई और आंदोलनों के दौरान ही वे आरएसएस से प्रभावित हुए और सक्रिय रूप से संघ के कार्यों में जुट गए।
लाल परचम के साए में चार आंदोलन किए थे यह संयोग ही रहा कि संघ की विचारधारा के सबसे बड़े प्रतीकों में से एक अटल बिहारी बाजपेई ने शुरूआती दौर में कम्युनिस्ट पार्टी के साथी कई आंदोलनों में हिस्सा लिया। कानपुर में छात्र जीवन के दौरान उन्होंने लाल परचम के साए में कई आंदोलनों ने हिस्सा लिया। हालांकि अटल हमेशा किसी कम्युनिस्ट संगठन की सदस्यता से इंकार करते रहे लेकिन उन्होंने यह स्वीकार किया है कि अध्ययन के दौरान कम्युनिस्ट पार्टियों के ही छात्र संगठन आंदोलनों को लेकर सक्रिय रहते थे। इस कारण उन्होंने सभी छात्र आंदोलनों में कम्युनिस्ट संगठनों से साथ आंदोलनों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया।
पहला चुनाव लखनऊ में हार गए थे अटलजी बात 1952 की है। लखनऊ सेंट्रल सीट के उपचुनाव में अटलबिहारी बाजपेयी भारतीय जनसंघ के टिकट से उम्मीदवार थे। इस चुनाव में कांग्रेस की प्रत्याशी को जीत मिली थी, जबकि 33986 वोट के साथ अटलजी तीसरे नंबर पर रहे। वर्ष 1957 और 1962 के चुनावों में भी लखनऊ को अटलबिहारी पसंद नहीं आए, लेकिन 1991 से अटल की लखनऊ में जीत का सफर शुरू हुआ तो वर्ष 2004 तक कायम रहा। इसके बाद उन्होंने राजनीति से संन्यास लेकर खुद को चुनावों से दूर कर लिया। अटलबिहारी के कानपुर में सहपाठी रामविलास त्रिपाठी बताते हैं कि अटल चाहते तो कानपुर से जीत सकते थे, लेकिन लखनऊ में पराजय के बाद उन्होंने बलरामपुर से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचना ज्यादा मुफीद समझा था।
कलेक्टरगंज और हटिया की खूब बाते करते थे अपने भाषणों में अटलबिहारी अक्सर ही कनपुरिया कहावतों को दोहराते थे। हटिया खुली बजाजा बंद… झाड़े रहौ कलेक्टरगंज जैसी पंक्तियां उनके कानपुर के प्रति लगाव को प्रदर्शित करती थीं। बावजूद वह कानपुर से चुनाव लडऩे की हिम्मत नहीं जुटा पाए। डीएवी हॉस्टल में अटलबिहारी के साथ रहने वाले हनुमानप्रसाद चतुर्वेदी कहते हैं कि अव्वल उस दौर में मजदूरों के शहर में तत्कालीन सांसद एसएन बनर्जी को हराना मुश्किल था। शहर में कम्युनिस्टों का बोलबाला था, जबकि जनसंघ की जड़ें कमजोर थी। यहां संघ का संगठनात्मक ढांचा में ज्यादा अच्छी स्थिति में नहीं था। इसी कारण शहर से अच्छे रिश्तों के बावजूद अटलबिहारी ने यहां से चुनाव लडऩा उचित नहीं समझा था।