पंचतत्वों का संयोजन, दिशाओं का तालमेल, इसी वास्त्रु के अनुसार घर बनवाएं वास्त्रु शास्त vastu shastra के मुताबिक, किसी भी भवन को बनाते समय पंचतत्वों का क्रम और दिशाओं का सही संयोजन बेहद जरूरी होता है। इस लिहाज से जेके मंदिर को देखेंगे तो ज्ञात होगा कि यह सीधी दिशाओं में बना हुआ है। यानी पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण। कोई भी दरवाजा पूर्व-दक्षिण, पूर्व-उत्तर, दक्षिण-पश्चिम, उत्तर-पश्चिम दिशा में नहीं है। मंदिर का मुख ठीक पूर्व दिशा में है। मंदिर के केंद्र में स्थापित राधाकृष्ण की मूर्ति पूर्व दिशा की ओर देख रही है। मूर्ति के पीछे पश्चिम दिशा है, बाएं हाथ पर उत्तर और दाहिने पर दक्षिण दिशा है। ऐसे में यहां अपार सकारात्मक ऊर्जा रहती है। वास्त्रु विशेषज्ञ आचार्य अंकित शुक्ल बताते हैं कि मंदिर का निर्माण पंचतत्वों यानी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश के के सही क्रम से किया गया है। मंदिर का मुख्यद्वार पृथ्वी तत्व है, इसके बाद होना चाहिए जल तत्व। इस लिहाजा से मुख्य द्वार तनिक आगे बढऩे पर शानदार फव्वारा दिल को प्रसन्न कर देता है। कुछ दूर बाद मंदिर की सीढिय़ों पर चढकऱ गर्भ गृह के द्वार पर पहुंचेंगे तो यज्ञ आदि के लिए स्थान नजर आएगा। यह अग्नि तत्व है। इसके बाद मंदिर के भीतर दाखिल होते ही काफी विशाल हॉल वायु तत्व है। इसके बाद जब आप सिर ऊपर उठाकर देखेंगे तो विशाल गुंबद आपको नजर आएगा। यह आकाश तत्व है। यानी की सभी का सही क्रम में प्रयोग किया गया। शिखर के ठीक नीचे राधाकृष्णजी विराजमान है। मंदिर में कुल पांच शिखर हैं। इसमें केंद्र शिखर सबसे ऊंचा है।
श्राप के भय से मंदिर में रोजाना होता है नव-निर्माण, विनाश का खतरा है मिर्जापुर से नौकरी की तलाश में कानपुर आए सिंघानिया घराने ने कुछ समय बाद एक साहूकार से कर्ज लेकर कारोबार शुरू किया तो दिन दूनी-चार चौगुनी तरक्की होती गई। देखते-देखते जेके समूह खड़ा हो गया। कामयाबी की दास्तां के दरम्यान वर्ष 1953 में जेके मंदिर का निर्माण शुरू हुआ। किस्सा है कि मंदिर निर्माण के समय एक साधु भीख मांगने पहुंचा तो मंदिर निर्माण का काम देखने वाले ऊंचे ओहदे वाले किसी कर्मचारी ने अपमानित कर दिया। क्रोध में साधु ने कारोबारी घराने के विनाश का श्राप दे दिया। मनुहार पर साधु का क्रोध शांत हुआ तो उसे भी भूल का अहसास हुआ। ऐसे में साधु से श्राप वापस लेने में असमर्थता जताते हुए उपाय बताया कि जब तक मंदिर का निर्माण होगा, श्राप का असर नहीं होगा। इसी कारण बीते 67 वर्षों से मंदिर में रोजाना कुछ न कुछ निर्माण अवश्य होता है।
शहर को समझना है तो पुराने इलाके की गलियों में घूमिए घूमने के लिहाज से कानपुर अद्भुत शहर है। यहां एशिया के प्राकृतिक वातावरण वाले पांच बड़े चिडिय़ाघरों में एक है। आईआईटी IIT kanpur, नेशनल शुगर इंस्टीट्यूट NSI national sugar institute , एचबीटीयू HBTI HBTU, चंद्रशेखर आजाद कृषि विवि CSA, कानपुर यूनिवर्सिटी, दलहन अनुसंधान, राजकीय वस्त्र अनुसंधान संस्थान, चर्म अनुसंधान संस्थान, नकली अंग बनाने वाला एल्मिको संस्थान जैसे अनगिनत शैक्षणिक संस्थान है। बहरहाल, पढ़ाई-लिखाई वाले इस शहर की बोली को सुनेंगे तो यकीन नहीं होगा कि शहर में इत्ते बड़े-बड़े नामचीन संस्थान है। लल्लनटॉप, कंटाप, माका नाका हिंडोला, अबे ओए, अमां यार… जैसे सैकड़ों शब्द हैं, जिसे इसी शहर ने गढ़ा है। शब्द ऐसे-ऐसे जिन्हें सुनकर हंसी आने की गारंटी है। इसी कारण शहर की माटी से फुदके शब्दों को बॉलीवुड की फिल्मों में जगह मिलती रहती है। शहर के मिजाज से ब़ॉलीवुड इत्ता प्रभावित हुआ कि दबंग-2, जॉली एलएलबी, मेरी शादी में जरूर आना जैसी तमाम फिल्में और भाबी जी घर पर हैं… जैसे धारावाहिक को कानपुर की पृष्ठभूमि पर बनाया गया है।
बिठूर जैसा आध्यात्मिक-क्रांतिकारी स्थान भी कानपुर की पहचान यूं तो शहर में तमाम आस्था के केंद्र हैं। परमट का आनंदेश्वर मंदिर, जाजमऊ का सिद्धनाथ मंदिर, बिरहाना रोड का तपेश्वरीदेवी और जूही के बारादेवी मंदिर के अलावा बिठूर का अलग महत्व है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, प्रभु श्रीराम के पुत्र लव-कुश का जन्म और शिक्षा-दीक्षा बिठूर में हुई थी। बिठूर में गंगा नदी के किनारे ब्रह्म खूंटी नामक स्थान है। भौगोलिक रूप से इसे ही पृथ्वी का केंद्र बताया जाता है। बिठूर का खास पहचान है क्रांतिकारी नाना साहेब पेशवा। नाना साहेब की अगुवाई में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1957 में कानपुर के क्रांतिकारियों ने एकजुट होकर अंग्रेज फौज को खदेडकऱ खुद को आजाद करा लिया था।
राजा हिंदू सिंह ने बसाया था कानपुर, लखनऊ के नवाब ने अंग्रेजों को सौंप दिया कानपुर की स्थापना को लेकर किस्से तमाम हैं। कोई कहता है कि कान्हापुर गांव से विकसित होने के कारण कानपुर बना तो कोई महाभारत काल के कर्ण के द्वारा बसाने के कारण कानपुर नाम पडऩे का दावा करता है। अलबत्ता इतिहास के सबसे मजबूत साक्ष्य के अनुसार, 13वीं शताब्दी में कन्हपुरिया समुदाय के राजा कान्हदेव ने कानपुर को बसाया था, जिसे आज पुराना कानपुर के नाम से जानते हैं। बाद सचेंडी रियासत के राजा हिंदू सिंह ने कानपुर का विस्तार किया। अतीत में कन्नौज के राजा हर्षवर्धन, जयचंद और मिहिर भोज जैसे तमाम राजाओं के साम्राज्य का हिस्सा रहे कानपुर पर सूर वंश के मुस्लिम शासकों का भी राज रहा। यूं तो वर्ष 1765 तक कानपुर की विशेष पहचान नहीं थी। मई 1765 में अवध के नवाब सिराजुद्दौला को जाजमऊ में गंगा किनारे अंग्रेजों से पराजित होना पड़ा था। इसके बाद कानपुर में अंग्रेजों की पैठ बनने लगी और वर्ष 1801 में संधि के तहत नवाब ने कानपुर को अंग्रेजों को हवाले कर दिया। अंग्रेजों ने गंगा नदी और कोलकाता से सीधा रास्ता होने के कारण कानपुर को कारोबारी ठिकाना बनाने का फैसला किया। इसी कारण कानपुर में तेजी से उद्योग लगे और देखते-देखते पूरब का मैनचेस्टर बन गया। एक वक्त कानपुर में 15 कपड़ा मिलें चलती थीं। लाल-इमली, एल्गिन मिल, विक्टोरिया मिल, जेके जूट मिल, जेके सिंथेटिक मिल, जेके रेयान मिल, जेके कॉटन मिल, लक्ष्मी-रतन कॉटन मिल, स्वदेशी कॉटन मिल जैसे ब्रांड की दुनिया में धूम थी।