15 साल एल्गिन के बाहर धरने पर बैठे हैं मजदूर, कईयों की मौत, तो 59 की लड़ रहे इंसाफ की लड़ाई
कानपुर। जब एल्गिन का दिल धड़कता तो मजदूरों का शहर चल पड़ता। दोपहर के वक्त एल्गिन का घंटा बजता तो मजूदरों की भीड़ से सड़क लबालब भर जाया करती थी। आसपास दर्जनों दुकानें थे, जहां पर बैठकर कर्मचारी और मजदूर भोजन के साथ चाय की चुस्कियों का आनंद उठाया करते। अलार्म बजता तो उठकर चल पड़ते और एल्गिन को थाम कर काम में जुट जाते। कभी इस मिल की बनी तौलिया लंदन की महारानी को खूब भाती थी तो अमेरिका और जपान में एल्गिन के बने कपड़े हर घर में पाए जाते थे। यहां का बना ज्यादातर माल लंदन एक्सपोर्ट होता था। लेकिन अब मिल एक खंडहर है और यहां पर सन्नाटा सुबह से लेकर देरशाम तक पसरा रहता है। पर कुछ कदम की दूरी पर कई 169 ने 18 मई 2003 को धरने पर बैठे थे। उनमें से सिर्फ 59 मजदूर ही जीवित बचे हैं। उनमें से कुछ जवान थे, जो बुजुर्ग हो गए हैं। दाड़ी और बाल काले के बजाए सफेद हो गए है पर जज्बा आज भी बरकरार है। उन्हें आस है कि एल्गिन के साथ ही हमारे साथ न्याय होगा।
इसके चलते धरने पर डटे मजदूर एल्गिन मिल में काम करने वाले करीब 1800 स्थानी और संविदा मजदूरों को सरकार ने आज से पंदह साल पहले निकाल दिया। इनमें से 169 मजदूरों ने श्रम विभाग में मुकदमा कर दिया। साथ ही मजदूर नेता मोहम्मद समी और भाजपा के श्रम प्रकोष्ठ के नेता ऋषिकांत तिवारी के नेतृत्व में अस्थायी मजदूरों ने एल्गिन मिल गेट के बाहर 18 मई 2003 को धरना शुरू कर दिया। तब से अनवरत रूप से दिन-रात धरना चल रहा है। मोहम्द समी ने बताया कि श्रम विभाग से वह मुकदमा जीत चुके हैं। सुनवाई हाईकोर्ट में चल रही है। 15 वर्षो के दौरान सैंकड़ों मजदूरों की मृत्यु हो चुकी है। वादकारी श्रमिकों में केवल 59 ही बचे हैं। भाजपा नेता ऋषिकांत तिवारी भी अब नहीं हैं। जवानी के जोश में शुरू किए गए आंदोलन के अधिकतर प्रदर्शनकारियों के कंधे झुक चुके हैं लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर आकर भी उन्हें इंसाफ की उम्मीद है।
अब नहीं आते राजनेता धरनास्थल पर बैठे मजदूरों ने बताया कि जब संख्याबल था तो हर नेता यहां माथा टेकने आता था। केंद्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल से लेकर कैबिनेट मंत्री सतीश महाना आकर भरोसा दिलाते रहे पर मजदूरों के हक में कुछ नहीं हुआ। मजदूर शिवकुमार ने बताया कि उन्होंने धरनास्थल के बगल में ही पंचर बनाने की दुकान खोली है। उसी से परिवार की गुजर बसर हो रही है। 65 की उम्र में किसी तरह तीन में दो बेटियों की शादी हो सकी। दूसरे प्रदर्शनकारी अयोध्या प्रसाद ने बताया कि परिवार का पेट पालने के लिए फलों का ठेला लगाते हैं। ऐसे ही हालात लगभग सभी परिवारों के हैं। धरने पर बैठे एक मजदूर ने बताया कि 2001 में यहां के कुछ भाजपा नेताओं ने अटल बिहारी बाजपेयी एल्गिन की जानकारी दी थी। उन्होंने हमें आश्वासन दिया था कि मिल के मजदूरों का बकाया पैसा वपास किया जागए, लेकिन कुछ हुआ नहीं। इसी के बाद हमलोग घरने पर बैठ गए।
एलिजाबेथ के पिता नाम से मिल की स्थापना1864 में ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ के पिता एडवर्ड एल्गिन के नाम पर मिल की स्थापना की गई थी। यहां बनने वाली साठिया चद्दर, तौलिया, बेड शीट, 660 नंबर चादर, जींस का कपड़ा, लंकलाट के बने कपड़ों की तूती देश में ही नहीं बल्कि विदेश में भी बोलती थी। उस दौर की यहां बनी तौलिया और चद्दर को अंग्रेज लंदन लेकर जाते थे। 15 हजार से अधिक मजदूर काम करते थे। आजादी के बाद 11 जून 1981 को मिल का भारत सरकार ने अधिग्रहण कर लिया। सरकार ने इसे बीआईसी (ब्रिटिश इंडिया कॉर्पोरेशन) की सहायक कंपनी के तौर पर स्थापित कर दिया। कुछ वर्षों तक उत्पादन के लिए सरकार कार्यशील पूंजी देती रही। इसके बाद चुनावी फायदा देख सरकार उत्पादन मद में सहायता न देकर केवल वेतन मद की ही धनराशि देती रही। 1982 तक यहां पर उत्पादन ठीक था। जब मिल में शिफ्ट बदली जाती थी तब मजदूरों का रेला निकलता था। ग्रीनपार्क छोर से लेकर नवाबगंज छोर की सड़कों पर चाय, खोमचों की दुकानें सजी रहती थीं। लेकिन इसके बाद से मिल की हालत खस्ता होती चली गई।
बंद होने का कारण मोहम्मद समी ने बताया कि उस वक्त के चेयरमैन ने मिल चलाने के लिए 9 बैंकों से करोड़ों का लोन लिया। लेकिन मिल चल नहीं पाई। यही लोन मिल बंदी का कारण बना। 1992 को मिल को बीमार घोषित कर दिया गया। 1994 से मिल बंदी की आधिकारिक घोषणा कर दी गई। 8 मई 2001 को अटल सरकार मिल में कर्मचारियों ने वीआरएस लेकर इस शर्त को माना कि जब मिल चलेगी तो उन्हें
रोजगार दिया जाएगा। इसके बाद न तो मिल चली न रोजगार मिला। मोहम्मद समी ने बताया कि मिल को कभी तकनीकी दक्ष प्रशासनिक अधिकारी चेयरमैन सरकार ने नहीं दिया। ऐसे चेयरमैन आए जिन्होंने बैंकों से भारी-भरकम लोन तो लिया लेकिन उसे चुका नहीं पाए। अफसरशाही के कारण मिल के खर्च बढ़ते गए और उत्पादन कम होता गया। मिल उत्पाद तो अच्छे बनाती रही लेकिन समय के साथ उत्पादों के बाजार नहीं मिले और इसी के चलते एल्गिन खामोस हो गई।