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नेताओं के छल और दिए जख्म से घंटाघर के साए में सोई इमली

locationकानपुरPublished: Apr 07, 2019 12:59:10 pm

Submitted by:

Vinod Nigam

दो दशक से वेंटीलेटर पर सांस ले रही कानपुर की धरोहर लाल इमली, चुनाव के दौरान राजनेताओं के मुद्उे से गायब, मजदूर और कर्मचारी आहत।

lal imli mil kanpur in lok sabha elections 2019

नेताओं के छल और दिए जख्म से घंटाघर के साए में सोई इमली

कानपुर। मै लाल इमली हूं… मेरी खूबसूरती ऐसी की जो भी देखे वो फिदा होने के साथ ही देखने वाला आहें भरने को मजबूर हो जाए। मेरी हनक ऐसी थी लोग मेरे सामने रुकने को मजबूर हो जाते थे। आज भी मै एक ऐसा नाम हूं जो किसी पहचान का मोहताज नहीं। .एक वक्त था की पूरी दुनिया में मेरे नाम का डंका बजता था। आज भी मेरे चाहने वालों की कोई कमी नहीं लेकिन आज मै बूढी हो चुकी हूं। अपनी अंतिम सांसे गिन रही हूं ! लेकिन उम्मीद की डोर है की टूटती नहीं। एक उम्मीद अभी भी कायम है की शायद देश के राजनेताओं की नजर मुझ पर पड़े और फिर से मुझे नया जीवन मिले।

ऐसे पड़ा लाल इमली नाम
पिछले दो दशक से कई चुनाव आए और गए। नेता लाल इमली के नाम पर वोट मांग और मजदूरों ने दिल खोलकर दिया। जनप्रतिनिधि चुनते ही वो फिर दोबारा कानपुर की शान लाल इमली मिल की तरफ नहीं देखा। इसी के कारण वो अब वेंटीलेटर पर है और उम्मीद के सहारे सांस ले रही है। इस मिल की स्थापना 1876 में पांच अंग्रेजों जॉर्ज ऐलेन, वीई कूपर, गैविन एस जोन्स, डॉक्टर कोंडोन और बिवैन पेटमैन ने मिलकर की थी। वूलेन मिल्स के लाल इमली बनने के पीछे भी दिलचस्प कहानी है। बताया जाता है की इस मिल के कैम्पस में एक विशाल काय इमली का पेड़ हुआ करता था। वो दुर्लभ प्रजातियों में से एक था। क्योकि उसमे से जो इमली निकलती थी वो सुर्ख लाल हुआ करती थी। धीरे धीरे यही लाल इमली इस मिल की पहचान हो गयी और इसके उत्पाद लाल इमली के नाम से मशहूर हो गए।

इसलिए नहीं होती थी रात
इंटक नेता आशीष पांडेय बताते हैं कि एक वक्त मिल में पांच हजार से ज्यादा कर्मचारी काम किया करते थे। तीन शिफ्ट में मिल चला करती थी। इसी मिल की वजह से कहा जाता था की कानपूर में कभी रात नहीं होती। सड़कों में सिर्फ और सिर्फ साइकिलों की घंटियों की आवाजें ही सुनाई दिया करती थी। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान यहां के उनी कपडे कम्बल किरमिच और सैडलरी की जबरदस्त डिमांड थी। 24 घंटे मिल चलती थी। उद्यमियों ने बहुत कमाई की। पर उन्होंने मिलों की मशीनों को दुरूस्त नहीं कराया और 1981 के बाद इसे बीमारू कि श्रेणी बता बंद करा दिया गया।

राजनीति पड़ी भारी
एसडी काॅलेज के प्रोफेसर राजेश सक्सेना बताते हैं कि मिल के बंद होने के पीछे राजनीतिक दलों का भी अहम रोल है। काम करने वाले लाखो मजदूरों को बरगलाने के लिए हर एक राजनीतिक दल ने अपना एक ट्रेड यूनियन खड़ा कर लिया। इसके साथ ही स्थानीय मुद्दों और क्षेत्रवाद के आधार पर भी तमाम श्रमिक संगठन अस्तित्व में आ गए। जिसके चलते मीलों में राजनैतिक हित साधने के नाम पर मजदूरों को उनका हक दिलाने के नाम पर आये दिन हड़ताल और तालाबंदी होने लगी। इस तरह सियासतदानों और श्रमिक आन्दोलनों ने आखिरकार यहां की मीलों की ताबूत में आखिरी कील ठोंक ही दी।

बंद करने का आ गया आदेश
इंटक नेता आशीष पांडेय बताते हैं, इस मिल को दोबारा चलाने के लिए पूर्वमंत्री श्री प्रकाश जायसवाल ने 2011 में 338 करोड़ का रिवाइवल पैकेज कपड़ा मंत्रालय से मंजूर कराया था। लेकिन इसके बदले मिल की जमीन बेचनें की शर्त रख दी। जमीनों की बिक्री पर जमकर खेल हुआ। हमलोगों ने विरोध किया तो सरकार ने सीबीआई जांच बैठा दी और ये रिवाइवल पॅकेज ठन्डे बसते में चला गया। उसके बाद नीति आयोग ने भी इन्हें तगड़ा झटका देते हुए इस मिल को बंद करने की संस्तुति कर दी थी।

जगी थी उम्मीद
राजेश कहते हैं कि 2014 में जब मोदी सरकार आई तो मिल के चालू होने की उम्मीद बढ़ी। सांसद मुरली मनोहर जोशी के प्रयासों से 212 करोड़ का एक नया रिवाइवल पॅकेज राष्ट्रपति के समक्ष भेजा गया, जो अभी पेंडिंग है। अगर ये पैकेज मंजूर हो गया तो इससे लाल इमली को कुछ हद तक उबरने में मदद मिल जाती। 2019 का आमचुनाव है। नेताओं के जुबंा पर मिलों को फिर से चालू कराने के वादे हैं। पर मजदूर इसबार उसी को वोट देंगे जो हफनामें में लिखकर इन्हें चालू कराने की घोषाणा करेगा।

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