इन बीमारियों की प्रमुख वजह के रूप में जो भी तत्व सामने आ रहे हैं उनमें कोयले की धूल, सिलिका धूल, अभ्रक के कण, फसलों की मड़ाई से निकलने वाले बारीक कण, पक्षियों की सूखी बीट और उनके पंखों से निकलने वाली बारीक स्पाइन शामिल हैं। कुछ तत्व ऐसे हैं जो आमतौर पर किसी विशेष औद्योगिक क्षेत्र में मिलते हैं। एक बार इन प्रदूषणकारी तत्वों से फेफड़े में जख्म होने के बाद उसकी पूर्ति नहीं हो पाती है।
प्रदूषण के चलते हवा में ऐसे घातक तत्व मिल रहे हैं जो अज्ञात बीमारियों का कारण बन रहे है। मुरारी लाल चेस्ट अस्पताल के प्रो. सुधीर चौधरी का कहना है कि इस समस्या से निपटने को चेस्ट स्पेशलिस्ट डायग्नोसिस की नई रणनीति तैयार कर रहे हैं। स्लाइड सेट के जरिए डॉक्टरों को डायग्नोसिस के लिए जागरूक किया जाएगा। खासकर फैमिली फिजीशियन, फिजीशियन और चेस्ट रोग विशेषज्ञों को भी प्रशिक्षित किया जाएगा।
अस्पतालों में आने वाले मरीजों में इंटरस्टीशियल लंग डिजीज, हाइपर सेंसिटिव निमोनाइट्स और सारकॉइडोसिस नामक फेफड़े की बीमारियां मिल रही हैं। इन तीनों बीमारियों के लक्षण एक जैसे होते हैं, पर डायग्नोसिस काफी कठिन है। प्रो. सुधीर चौधरी के मुताबिक इन तीनों बीमारियों में फेफड़े सिकुड़कर छोटे हो जाते हैं। रक्तप्रवाह और ऑक्सीजन लेने की क्षमता खत्म हो जाती है। मरीज को सिलेंडर के सहारे ऑक्सीजन देनी पड़ती है। संक्रमण होने के तीन साल के अंदर ये बीमारियां बढ़कर सामने आती हैं।
मुरारी लाल चेस्ट अस्पताल के प्रो. सुधीर चौधरी ने बताया कि टीबी के लक्षण हैं, फेफड़े कमजोर हो रहे हैं और जांच में टीबी नहीं मिलती है तो इन तीनों बीमारियों के लिए डायग्नोसिस की जानी चाहिए। टीबी से मिलती-जुलती कोई दूसरी बीमारी भी हो सकती है। ऐसी सूरत में फिजीशियन को मरीज को चेस्ट रोग विशेषज्ञों के पास रेफर करना चाहिए। चेस्ट रोग विशेषज्ञ भी पूरे पैरामीटर की जांच अवश्य करें। आम लोग प्रदूषणकारी तत्वों से दूर रहें।