चाहे यूपी बोर्ड हो, सीबीएसई बोर्ड, सीआईएससीई या फिर कोई अन्य बोर्ड, सभी में एक होड़ सी मची है खुद को बेहतर दिखाने की। इसी के चलते पहले की अपेक्षा कोर्स छोटा और प्रश्न पत्र आसान कर दिया गया है, जिसका नतीजा है कि आज बच्चे नंबरों के पहाड़ पर चढ़ते जा रहे हैं, लेकिन इससे बच्चों का बौद्धिक विकास नहीं हो पा रहा है।
शिक्षकों का कहना है कि पहले ६० प्रतिशत नंबर के भी लाले पड़ जाते थे। सेकेंड डिवीजन वालों की भी वैल्यू थी, लेकिन आज ८० प्रतिशत वाले भी चर्चा में नहीं आ पाते। यह परंपरा गलत है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि ९० प्रतिशत नंबरों वाला ही होशियार हो और ६० या ७० प्रतिशत वाला उनसे कमजोर। सिर्फ नंबरों की होड़ से कोई लाभ नहीं, अगर कम नंबर होने पर भी बच्चा अलग-अलग विधाओं में तेज है तो वह दूसरों से ज्यादा बेहतर है।
डॉ. वीरेंद्र स्वरूप एजूकेशन सेंटर की प्रिंसिपल शर्मिला नंदी कहती हैं कि शत प्रतिशत नंबर देना वाकई हैरानी भरा है। उन्होंने बताया कि अगर आप ने की-वर्ड लिखे हैं तो नंबर मिल जाएंगे, अगर की-वर्ड नहीं लिखे हैं तो भले ही मैटर कितना अच्छा हो पूरे नंबर नहीं मिल सकते। उन्होंने कहा कि बच्चों के नंबर न काटा जाना गलत है।
शिक्षकों का कहना है कि १०० प्रतिशत नंबर देना बच्चों से ज्यादा शिक्षकों पर सवालिया निशान उठाता है। इसलिए मूल्यांकन प्रक्रिया पर भी विचार करना जरूरी है क्योंकि नंबरों की होड़ से बच्चों की प्रतिभा प्रभावित होने लगती है। इससे बोर्ड की गरिमा पर भी सवाल उठने लगेंगे।