आजादी की जंग छिड़ चुकी थी। चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ था। भारत मां को गुलामी की जंजीर से आजाद कराने के लिए लोग घरों से निकल चुके थे। इधर अंग्रेजों के अत्याचार से लोग कराह रहे थे। नार से गुजरी रिन्द नदी के पुल से गुजरने वाले फिरंगियों के घोड़ों के टापों की आवाज दरियावचन्द्र को परेशान किया करती थी। इसको लेकर उनके मन में क्रांति की ज्वाला भड़क रही थी, जो 1857 के संग्राम में फूट गयी। क्रांतिकारी मैदान में आ चुके थे, लेकिन अंग्रेजों की सरफरस्ती के चलते लोगों के पास हथियार जुटाने के लिये धन नहीं था। तब गौर राजा दरियावचंद्र की अगुवाई में आजादी के संग्राम मे कूद चुके तमाम रियासतदारों और क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के खजाने को लूट लिया और अंग्रेजों को गंगा पार खदेड़ दिया।
फिर अंग्रेजों ने राजा को फांसी पर लटका दियाविद्रोह थमने पर अंग्रेजी हुकूमत के गुलामों ने राजा दरियावचंद्र को गिरफ्तार कर लिया और धर्मगढ़ परिसर में खड़े नीम के पेड़ से लटका दिया। इसके बाद अंग्रेजों ने उनकी रियासत को जब्त करके खानपुर डिलबल के पहलवान सिंह को सौंप दी थी। आज भी राजा दरियावचन्द्र की कुर्बानी का किस्सा यह पुराना किला बयां करता है। नार कहिंझरी के लोगों का कहना है कि राजा दरियावचंद्र की वर्तमान पीढ़ी से कोई भी अब यहां नहीं रहता है, लेकिन राजा के बलिदान की कहानी जरूर यहां सुनाई जाती है। राजा के पारिवारिक लोग रसूलाबाद के दहेली गांव में निवास करते हैं, जिनके पास आज भी उनकी यादें ही महज शेष रह गयी हैं। नार में उनके किले की दो दीवारों के साथ किले का जर्जर दरवाजा उनकी शहादत की याद दिलाता है।