कानपुर

राजा विराट से बदला लेने के लिए गुरु द्रोणाचार्य ने यहां बनवाया था ये मंदिर, उमड़ता है सैलाब

असालतगंज में स्थित एक ऐसा मंदिर, जो द्वापर युग की याद आज भी दिलाता है। मान्यता है कि महाभारत काल मे धनुर्धर अर्जुन के गुरु द्रोणाचार्य द्वारा बनवाया गया ये प्राचीन मंदिर आज भी अपने आप मे एक इतिहास समेटे हुए है।

कानपुरJul 14, 2018 / 12:26 pm

Arvind Kumar Verma

राजा विराट से बदला लेने के लिए गुरु द्रोणाचार्य ने यहां बनवाया था ये मंदिर, उमड़ता है सैलाब

कानपुर देहात-जनपद कानपुर देहात के असालतगंज में स्थित एक ऐसा मंदिर, जो द्वापर युग की याद आज भी दिलाता है। मान्यता है कि महाभारत काल मे धनुर्धर अर्जुन के गुरु द्रोणाचार्य द्वारा बनवाया गया ये प्राचीन मंदिर आज भी अपने आप मे एक इतिहास समेटे हुए है, जिसे देखने के लिए दूर दराज से लोग यहां आते है और भगवान भोले शंकर की आराधना करते है। द्रोणाचार्य द्वारा इस मंदिर की स्थापना की गई इसलिए उनके नाम पर इस मंदिर का नाम द्रोणेश्वर मंदिर पडा। इस मंदिर मे बने शिवलिंग पर श्रद्धालु मत्था टेकने आते है। प्रत्येक वर्ष सावन के महीने मे इस मंदिर मे भक्तो का तांता लग जाता है। कहा जाता है कि सावन के माह मे भगवान त्रिलोकी नाथ स्वयं मंदिर मे विराजमान होते है। ऐसे अवसर पर भक्तो के द्वारा मांगी हुयी मुराद पूरी होती है।
 

राजा से बदला लेने के लिए की थी शिवलिंग की स्थापना

कहा जाता है कि द्वापर युग मे जब बलशाली राजा विराट ने गुरु द्रोणाचार्य को को बंधक बना लिया था। तो राज्य मे हाहाकार मच गया था। जब राजा निद्रा अवस्था मे थे, तो अपने तप बल से द्रोणाचार्य राजा के बंधन से मुक्त होकर वहाँ से निकल आये और प्रतिशोध की भावना को लेकर वह असालतगंज के इस स्थान पर आकर रुके थे। जहाँ उन्होने राजा से बदला लेने के लिये इस स्थान पर एक शिवलिंग की स्थापना की। और उनकी पूजा मे तल्लीन हो गये। लम्बे अरसे बाद
वह जब हस्तिनापुर पहुंचे, तो कौरव व पांडव गेंद खेल रहे थे।
 

धनुर्धारी अर्जुन के बने थे गुरु

खेल खेल मे उनकी गेंद एक गहरे कुयें मे गिर गयी। जिसको निकालने के लिये कौरव व पांडव चिंतित थे। वहाँ से गुजर रहे द्रोणाचार्य ने उनकी चिंता को देख वजह पूंछी। तो द्रोणाचार्य ने अपने तरकश से तीर निकालते हुये कुयें मे डालकर मंत्रोच्चार से गेंद को बाहर निकाल दिया। द्रोणाचार्य की इस विधा को देख हस्तिनापुर मे शोर शराबा हो गया। हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र को जब यह बात दरबार मे पता चली। तो उन्होने गुरु द्रोणाचार्य को बुलवाया। जिसके बाद द्रोणाचार्य ने पांडव पुत्र अर्जुन को धनुष विधा सिखाकर धनुर्विधा मे निपुण किया।
 

शताब्दियो पुराने इस मंदिर मे होते है जलसे

इस मंदिर की परम्परा है, कि सावन व शिवरात्रि के पर्व पर यहाँ मेला लगता है। शिव भक्त यहाँ से कांवर लेकर गंगा घाट पर जल भरने के लिये प्रस्थान करते है। रात्रि बेला मे भक्ति कार्यक्रम आयोजित किये जाते है। जिसमे कस्बा के लोग मंदिर परिसर मे भजन कीर्तन कर अपने आराध्य को मनाते है। लोग भांग घोंटकर एक दूसरे को भोलेनाथ के प्रसाद के रूप मे वितरित करते है। फूल, बेलपत्री की दुकाने सज जाती है। महिलायें भी शिवलिंग का श्रंगार कर सोलह सोमवार वृत रखकर मनोकामनायें पूर्ण करने के लिये इस दर पर आती है, और दूध से शिवलिंग को नहलाकर अपनी मन्नते मांगती है। मंदिर की देखरेख के लिये समिति के लोग चंदे से धन जुटाकर मंदिर के निर्माण कार्य व मरम्मत मे लगाते है।
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