कौन थे पार्षद जी
श्यामलाल गुप्त पार्षद जी का जन्म 9 सितंबर 1896 को कानपुर के नरवल गांव में हुआ था। लेकिन शिक्षा-दिक्षा के चलते शहर आ गए और जनरल गंज इलाके में एक छोटे से मकान में रहने लगे। गुप्ता जी क्रांतिकारी गीत, लेख लिख कर लोगों को जागरुक करने का काम किया करते थे। अंग्रेज अफसर जब पार्षद जी की हकीकत जाना तो गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। वो जेल में रहकर आंदोलन वाले लेख व गीत लिखकर आजादी की ज्योति जलाते रहे। जीवन की महान उपलब्धियों को देखते हुए सरकार ने 15 अगस्त 1973 को पार्षद जी को पद्म श्री से सम्मानित किया।
2 दिन नहीं सोए
श्यामलाल गुप्त पार्षद के पौत्र राजेश गुप्ता बताते हैं 1924 में कांग्रेस का अधिवेशन कानपरु में तय किया गया। कहते हैं, अधिवेशन के 2 दिन पहले से उन्होंने घर से निकलना बंद कर दिया और 2 दिन सोए भी नहीं। रात-दिन लगकर उन्होंने झंडा गीत लिखा। उन्होंने 13 अप्रैल 1924 को फूलबाग मैदान में हजारों लोगों के सामने ये गीत गाया। जवाहर लाल नेहरू भी इस सभा में मौजूद थे। नेहरू जी को उनका ये गीत बेहद पसंद आया। उन्होंने उस वक्त कहा भले ही लोग श्याम लाल गुप्त को नहीं जानते होंगे, मगर आने वाले दिनों में पूरा देश राष्ट्रीय ध्वज पर लिखे उनके गीत से उन्हें पहचानेगा। कहते हैं,, इस गीत के बाद दादा जी आज भी लोगों के दिल में बसते हैं।
तब रो पड़ी थीं इंदिरा
पौत्र बताते हैं, दादा जी बहुत शांत स्वभाव के थे। उन्हें किसी चीज का शौक नहीं था। बस खाने में उनको सब्जी मिले ना मिले पर दाल जरूर मिलनी चाहिए थी। बिना दाल के खाना नहीं खाते थे। दादा जी सिर्फ धोती-कुर्ता ही पहनते थे। बताया कि जब श्यामलाल गुप्त को उनके गीत के लिए 1973 में पद्मश्री अवार्ड देने के लिए दिल्ली पीएम ऑफिस से बुलावा आया था। वह कहते हैं, उस खबर को सुनकर दादा जी बहुत खुश हुए थे। दिल्ली जाकर आवार्ड लेने के लिए शरीर ढकने के लिए कपड़े नहीं थे। दादा जी फटी धोती और कुर्ता पहनकर पुरुस्कार लेने के लिए दिल्ली गए थे। जहां पर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उन्हें देखकर रो पड़ी थीं।
छह साल की जेल
वह कर्मठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे। 1920 में वह फतेहपुर जिला कांग्रेस के अध्यक्ष बने और नमक आंदोलन तथा भारत छोड़ो आंदोलन का प्रमुखता से संचालन किया। असहयोग आंदोलन के कारण उन्हें रानी यशोधरा के महल से 21 अगस्त 1921 को गिरफ्तार किया गया। 1930 में नमक आंदोलन के सिलसिले में वह फिर से गिरफ्तार हुए। 1944 में भी गिरफ्तार किया गया। इस तरह आठ बार में कुछ छह सालों तक जेल में रहे। स्वतंत्र भारत में 1952 में लाल किले से उन्होंने अपना झंडा गीत गाया, 1972 में लाल किले में उनका अभिनंदन हुआ और पद्मश्री मिला।
पार्षद जी की प्रतिमा का किया अनावरण
पार्षद जी की पौत्र बताते हैं, दादा जी बेहद कठिनाइयों में उन्होंने दिन गुजारे थे। नंगे पांव घूमने की वजह से उनके दाहिने पैर में कांटा चुभ गया था। बाद में बड़ा घाव बन गया। उन दिनों घर की माली हालत खराब होने के कारण अच्छे से इलाज भी नहीं कराया जा सका। जिंदगी के आखिरी दिनों में इन्हें उर्सला हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था। 11 अगस्त 1977 को इनकी मौत हो गई। इसके बाद कोई नेता सुधि लेने नहीं आया। हां कानपुर के रहने वाले और दादा की के करीबी रामनाथ कोविंद जब देश के राष्ट्रपति चुने गए तो वह उनके पैतृक गांव जाकर प्रतिमा का अनावरण किया था।