बुंदेलखंड में बजता था मायावती का डंका
बुंदेलखंड में करीब 18 लाख दलित मतदाता हैं, जो लोकसभा चुनाव 2014 से पूर्व मायावती के साथ मजबूती के साथ खड़े रहे। बतौर यूपी प्रभारी बनाए जाने के बाद बीजपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कानपुर-बुंदेलखंड को एक परिक्षेत्र बना दिया। यहां के 17 जिलों की 10 लोकसभा तो 52 विधानसभा सीटों पर कमल खिलाने के लिए 20 हजार बूथ अध्यक्ष, 147 मंडल अध्यक्ष और 18 विस्तारकों की नियुक्ति कर दी। जिसमें ज्यादातर पदाधिकारियों की संख्या दलित समुदाय के कार्यकर्ताओं की थी। जिसका नतीजा रहा कि बसपा का गढ़ कहे जाने वाले बुंदेलखंड में हाथी बुरी तरह से हार गया और यहां की चारों लोकसभा के अलावा 19 विधानसभा सीटों पर भगवा ध्वज फहराया।
मुलायम के गढ़ को भी ढहाया
मुलायम सिंह ने 1989 में साइकिल का हैंडिल थाम कर इटावा के अलावा आसपास के जिलों में सपा को खड़ा किया। किसान नेता का इन जिलों में ऐसा जादू चला कि कांग्रेस, बीजेपी सहित अन्य दलों का बुरिया-बिस्तर जनता ने बांध कर यहां से रवाना कर दिया। राममंदिर आंदोलन के वक्त भी जहां बीजेपी ने अन्य मंडलों में अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन मुलायम सिंह यादव के किले को भेद नहीं पाई। पर 2014 लोकसभा चुनाव में पीएम नरेंद्र मोदी की सुनामी में मुलायम का किला भी ढह गया। कन्नौज को छोड़कर समाजवादी पार्टी सभी सीटों पर बुरी तरह से हार गई। यही नजीता विधानसभा चुनाव में हुआ। यहां 33 सीटों पर कमल खिला। इटावा में बीजपी ने मुलायम सिंह को कैंडीडेट्स को चित कर दिया था। करीब चार लाख वोटर्स वाली कन्नौज सीट पर डिम्पल यादव हारते-हारते जीती थीं।
कांग्रेस को उठानी पड़ी करारी हार
कानपुर नगर व देहात में कांग्रेस पार्टी की स्थित बहुत मजबूत थी। यहां से पूर्व मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल तीन बार सांसद चुने गए। कांग्रेस प्रत्याशी 1999 से लगातार जीत रहे थे पर 2014 के लोकसभा चुनाव में डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी ने उन्हें करीब ढाई लाख मतों से हरा कर इतिहास रचा था। वहीं कानपुर देहात से भी बीजेपी के देवेंद्र सिंह भोले ने बसपा प्रत्याशी को करीब पौने दो लाख वोटों से पराजित किया था। बीजेपी की जीत का सिलसिला विधानसभा चुनाव में भी जारी रहा। इस परिक्षेत्र की 52 में 47 सीटों पर कमल खिला। कानपुर की दस में 7 तो देहात की चारों सीटों पर बीजपी ने फतह हासिल की थी।
जिसे चाहा उसे जिताया
देश के पहले चुनाव में कांग्रेस के हरिहर नाथ शास्त्री कानुपर से सांसद चुने गए। पर 1957 के चुनाव में एक ट्रेड यूनियन नेता सत्येन्द्र मोहन बनर्जी चुनावी ने कांग्रेस से यह सीट छीन ली। 1962 के चुनाव में कांग्रेस ने विजय कुमार सिन्हा, को बनर्जी के खि़लाफ़ मैदान में उतारा। लेकि मज़दूरों ने बनर्जी को ही जीत दिलाई। 1967 में कांग्रेस ने बनर्जी के खि़लाफ़ अपने एक बड़े ट्रेड यूनियन नेता गणेश दत्त बाजपाई को खड़ा किया पर जीत बनर्जी को ही मिली। 1971 के चुनाव में कांग्रेस ने बनर्जी के खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा किया। 1980 में कांग्रेस ने आरिफ मोहम्मद खान को टिकट दिया और वो चुनाव जीत गए। 1984 में कांग्रेस के नरेश चंद्र चतुर्वेदी भारी मतों से जीते। 1989 में हुआ और पहली बार एक वामपंथी पार्टी- सीपीआई (एम) की उम्मीदवार सुभाषिनी अली ने जीत दर्ज की। 1991 में फिर से लोक सभा चुनाव हुए और द्रोण ने सुभाषिनी अली को हरा दिया। द्रोण 1996 और 1998 में भी जीते पर 1999 में कांग्रेस के श्रीप्रकाश जायसवाल से हार गए।