यह वह समय था जब अंग्रेजी हुकूमत का परचम पूरे देश पर लहरा रहा था। सारी रियासतें अलग-थलग थीं और अंग्रेजों को इसका फायदा मिला और उन्होंने एक दूसरे को आपस में लड़ाकर अपना उल्लू सीधा किया था। नाना साहब पेशवा आजादी की लड़ाई के पहले ऐसे नायक थे, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद की और सभी रियासतों को एकजुट कर अंग्रेजी सरकार की घेराबंदी शुरू कर दी थी। मराठा क्रांतिकारी अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बनने लगे।
१८५७ की क्रांति से पहले अंग्रेजों को यह एहसास भी नहीं था कि देश में उनके खिलाफ आक्रोश पनप रहा है। अंग्रेज समझते थे कि देश में उनकी हुकूमत है और उनके खिलाफ अब कोई बोल नहीं सकता। इसी दौरान ४ जून से २५ जून के बीच पूरे कानपुर में सरकार के खिलाफ एक आंदोलन शुरू हो गया। नाना साहब के साथ तात्याटोपे और रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में क्रांति की आग भड़क उठी। हर ओर से देशभक्त निकल पड़े और पूरे देश में अंग्रेजी सरकार के खिलाफ लड़ाई शुरू हो गई। अंग्रेज भी समझ नहीं पाए कि अचानक क्या हो गया।
आजादी का आंदोलन शुरू हुआ तो अंग्रेजी सरकार की नौकरी करने वाले भारतीय सिपाहियों में भी देशभक्ति जाग उठी। इसी दौरान ४ जून को अंगेजों की पिकेट में तैनात टिक्का सिंह ने साथियों के साथ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया और नवाबगंज का खजाना लूट लिया गया। क्रांतिकारियों ने यहां से गोला बारूद भी लूटा और जेल में बंद साथियों को भी मुक्त कराया। इससे पहले कि अंग्रेज संभल पाते अगले ही दिन पांच जून को बिठूर से जाजमऊ तक अंग्रेजों की कोठियों पर क्रांतिकारियों ने धावा बोल दिया।
क्रांतिकारियों के हमले से अंग्रेज हिल चुके थे। आखिरकार उन्होंने कानपुर छोडऩे का फैसला किया और २७ जून को परिवार सहित नावों पर सवार होकर सुरक्षित ठिकानों की ओर चल पड़े। बीच धार में नाविक गंगा में कूद पड़े और हाथों में तलवारें लेकर क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों का कत्लेआम शुरू कर दिया। २७ जून को गंगा की धारा अंग्रेजों के खून से लाल हो गई थी।