कौन थे शहीद मेजर सलमान
शहीद मेजर सलमान खान मूलरूप से फतेहपुर जिले के मिस्सी गांव के रहने वाले थे। उन्होंने क्लास 7 से लेकर 12वीं तक की शिक्षा सैनिक स्कूल लखनऊ से ली। पहले ही प्रयास में सलमान एनडीए के लिए सिलेक्ट हो गए और तीन साल की ट्रेनिंग के बाद उनका का चयन आईएएम में हुआ। वहां से मेजर सलमान खान की पहली पोस्टिंग 22 नवंबर 1999 को उधमपुर में हुई। तभी कारगिल की युद्ध शुरू हो गया। मेजर सलमान खान अपनी आरआरएम यूनिट के साथ पहाड़ियों में खूब लड़े और भारत की जीत मं अहम रोल निभाया।
जन्नत को साफ करने का उठाया बीणा
शहीद मेजर के बड़े भाई इकरार अहमद खान बताते हैं कि कारगिल की जंग के बाद उन्हें दूसरे शहर में जाने का मौका मिला, लेकिन उन्होंने तय कर लिया था कि जब तक जन्नत को आतंकियों से मुक्त नहीं करा लूंगा तब तक यहीं पर तैनात रहूंगा। इकरार बताते हैं कि 6 साल के कैरियर में मेजर सलमान खान सलमान ने कई बड़े आपरेशनों में भाग लिया। आतंकियों को जब ढेर कर अपनी कैंप में वापस आते तो फोनकर बताते कि भाईजान आज आठ का काम तमाम किया है कल फिर 16 को मारना है। इकरार बताते हैं कि ने100 से ज्यादा खुंखार आतंकियों को मौत के घाट उतारा था। इसी वजह से वहां के लोग और आतंकि सलमान को शिकारी के नाम से पुकारते थे।
कमांडर को मारने का मिला था टाॅस्क
इकरार अहमद बताते हैं कि कुपवाड़ा में लश्कर के कमांडर अबू मुमान को मारने का टाॅस्क मेजर सलमान खान को मिला। उन्होंने करीब एक माह तक उसकी मुवमेंट पर नजर रखी। सटीक सूचना मिलते ही वह अपनी टुकड़ी के साथ 5 मई 2005 को एक घर को चारों तरफ से घेर लिया था। घर में लश्कर का कमांडर अपने चार अन्य आतंकियों के साथ छिपा था। सलमान ने उसे ललकारा और सरेंडर करने को कहा। पर उसने फायरिंग शुरू कर दी। करीब दो घंटे तक चली मुठभेड़ में आतंकी मारे गए, लेकिन एक आतंकी छिप गया। आॅपरेशन के आखरी दौर में उसी आतंकी ने धोखे से हमला कर दियां और तीन गोलियां गलने के बाद भी सलमान ने उसका काम तमाम कर दिया। दो दिनों तक अस्पताल पर रहे और 7 मई 2005 को उन्होंने आखरी सांस लीं।
दोनों का फर्ज अदा किया
इकरार कहते हैं कि उन्हें फख्र है कि सलमान ने देश की रक्षा के लिए जिंदगी कुर्बान की। इस्लाम हमेशा वफादारी की सीख देता है। उसने अपने मजहब और मुल्क दोनों का फर्ज अदा किया है। इकरार ने बताया कि उनके शहीद हो जाने के बाद हमने कानपुर के बजाए पैतृक गांव मिस्सी में उनके के शव को दफनाया। इकरार इसके पीछे की भी वजह बताते हैं। वह कहते हैं कि शहीद स्मारक बनने के बाद स्कूल के बच्चे अक्सर आते हैं और उनकी वीरता की कहानी सुनकर उनके जैसा बनने के लिए शपथ लेते हैं। हमारे गांव में 25 से ज्यादा युवा फौज में हैं और देश की सेवा कर रहे हैं।
फतेहपुर में नहीं मिला सम्मान
इकरार खान कहते हैं कि कानपुर में सरकार ने शहीद के नाम से झकरकटी बस अड्डे का नाम रखा और हर वर्ष 7 मई को शहीद दिवस भी लोग मनाने हैं। पर फतेहपुर के जनप्रतिनिधि और अलाधिकारी कभी शहीद स्मारक नहीं आते। शहीद स्मारक की नींव व पार्क के लिए उस समय की सरकार ने कई वादे किए पर आज तक पूरे नहीं हुए। कहते हैं कि हमने खुद के पैसे से शहीद स्माकर बनवाया। आज भी एक भी सरकारी अफसर व जनप्रतिनिधि शहीद को श्रृद्धांजलि देने आया।