कांग्रेसियों की मांग को इंदिरा ने माना
आपातकाल के बाद कांग्रेस को हार उठानी पड़ी। खिसक चुकी जमीन को पाने के लिए कांग्रेसी लगे हुए थे। तिलकहाॅल में कांग्रेस के नेताओं के अहम बैठक की और कानपुर में इंदिरा गांधी की रैली कराए जाने का रणनीति बनाई। कांग्रेस के नेता दिल्ली जाकर इंदिरा गांधी से मिले और फूलबाग मैदान से रैली कर 1980 के चुनाव में उतरने की मांग रखी। पूर्व प्रधानमंत्री ने कांग्रेसियों की बात मान ली और 1978 को फूलबाग में आकर हुंकार भरी, जिसका नतीजा रहा कि यूपी ही नहीं देश में पंजे का परचम फहराया।
विपक्ष पर लगाए थे ये आरोप
वरिष्ठ कांग्रेसी नेता शंकरदत्त मिश्रा बताते हैं इंदिरा गांधी लखनऊ के रास्ते 19 सितंबर 1978 को शहर पहुंची। फूलबाग के मैदान पर पैर रखने तक की जगह नहीं थी। लोग इंदिरा को सुनने के लिए पेड़ों की टहनियों में चढ़े थे। उस दिन इंदिरा एक शेरनी की तरह दहाड़ीं। इंदिरा ने कहा था कि विपक्षी नेता अमेरिका के इशारे पर काम कर रहे हैं और सरकार से आएदिन कोई न कोई मांग कर रहे हैं। इसी के चलते उनको ठिकाने के लिए हमने आपातकाल लगाया।, इसी के बाद यहां से बदलाव की बयार निकली और देश में कांग्रेस की वापसी हुई।
कुल्लहड़ में पी थी चाय
शंकरदत्त मिश्रा बताया कि रैली के पहले इंदिरा गांधी ने कुल्हड़वाली चाय पी और फिर जलेबी और अचार के साथ मठरी खाने की इच्छा जाहिर की। कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने मोतीझील से चाय लेकर के साथ ही आर्यनगर से देसी घी से तैयार गर्म जलेबी, मठरी और अचार लेकर आए। इंदिरा ने कानपुर का नाश्ता करके काफी खुश हुई। इंदिरा गांधी को इस बात का एहसास था कि अगर कानपुर के लोग और मजदूर उनके साथ खड़े हो गए तो चुनाव जीतना तय हैं और कुछ हुआ भी यही। मजूदर गोलबंद होकर कांग्रेस के पक्ष में उतर आए।
…तो कानपुर जरूर आती
1977 के चुनाव में हार के बाद इंदिरा गांधी की रैली के बाद 1980 में कानपुर व बिल्हौर संसदीय सीटें जिताकर कांग्रेस की गोद में डाल दीं। कांग्रेस इसे आज भी अपना एक टोटका मानती है। इस संबंध में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता शंकरदत्त मिश्रा का कहना है कि 1980 के चुनाव का अभियान पार्टी ने कानपुर से ही शुरू किया था। इस बीच जब भी इंदिरा गांधी रायबरेली, उन्नाव या लखनऊ आतीं तो उनकी कोशिश होती थी कि वह कानपुर जरूर आएं। इस बीच कानपुर में एक प्रदेश कार्यसमिति का भी आयोजन हुआ।
इसलिए अहम रहा है कानपुर
मिश्रा बताते हैं कानपुर में का उस जमाने में मजूदरों का बोलबाला रहा है। यह शहर प्रदेश के बिलकुल बीच में होने के कारण यहां दिया गया मेसेज पूरे प्रदेश में आसानी से पहुंचता था। यहां से हर पार्टी को एक किस्म की एनर्जी मिलती है। अगर यहां कोई रैली या सभा कामयाब होती है, तो पार्टी अपने आने वाले दिनों का अनुमान आसानी से लगा लेती थी। कानपुर के मतदाताओं ने सबसे ज्यादा कांग्रेस के उम्मीदवारों के यहां से सात बार जिताया है, जबकि चार बार निर्दल उम्मीदवार बनर्जी सांसद चुने गए। राममंदिर आंदोलन के बाद कानपुर में भाजपा को पैर जमानें का मौका मिला।