शर्मा बताते हैं कि वह जमाना बेगार कराने का था। कोई भी व्यक्ति उस समय खुलकर अपनी बात नहीं कह सकता था। अंग्रेजी हुकूमत का फरमान ही सब कुछ था। गलत-सही का आंकलन करना, तर्क करना भी जुर्म की श्रेणी में शुमार था। राजशाही जमाने में लगने वाले दरबार लोगों की तकदीर का फैसला करने वाले होते थे। शर्मा ने बताया कि यूं तो आजादी हमें 15 अगस्त 1947 को मिल गई, लेकिन लोकतंत्र की तमाम प्रक्रियाओं के पूरे होने तक गुलामी का साया बरकरार रहा। मत्स्य प्रदेश तक गुलामी के कुछ अंश देखे गए। बाद में रफ्ता-रफ्ता लोकतंत्र का राज आया। राजशाही का अंत होने पर ही लोग असल मायने में आजादी का मतलब समझ सके। राजाओं का दबदबा भी ऐसा था कि लोग चूं कहने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे।
शर्मा ने आज की आजादी को बेहतर बताया, लेकिन साथ ही इस आजादी के बहाने कुछ भी बोल देने की विचारधारा को ठीक नहीं ठहराते हुए देश में नासूर बन रहे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की वकालत भी की। भरतपुर में देखी आजादी की झलक शर्मा बताते हैं कि जहां राजशाही जमाने में लोगों को जुबान खोलने तक का हक नहीं था। वहीं लोकतंत्र में इसकी बानगी तब देखने को मिली जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भरतपुर आईं थीं। यहां सिंधी समाज की कुछ महिलाओं ने गांधी को भाषण नहीं देने दिया और शोर-शराबा किया। इसके बाद वह मंच से नीचे आईं और उनकी बात को पूरी तवज्जो के साथ सुनने पर उनकी हर बात को शिरोधार्य किया। 18 वार्डों के बने चेयरमैन वयोवृद्ध परशुराम शर्मा पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से लगाई गई इमरजेंसी के ठीक बाद करौली के निर्विरोध चेयरमैन चुने गए। उस समय शहर में महज 18 वार्ड थे। यह चुनाव वर्ष 1976 में हुए, जिन्हें शर्मा को सर्वसम्मति से निर्विरोध अध्यक्ष चुना गया। इससे पहले वह सन् 1958 में नगरपालिका के मेम्बर भी रहे। उन्हें रियासतकाल में वकालत का पट्टा भी मिला।