तुलसी (Tulsi) को भारतीय जनमानस में बड़ा पवित्र स्थान दिया गया है। यह लक्ष्मी व नारायण दोनों को समान रूप से प्रिय है। इसे ‘हरिप्रिया’ भी कहा गया है। बिना तुलसी के यज्ञ, हवन, पूजन, कर्मकांड, साधना व उपासना पूरे नहीं होते। यहां तक कि श्राद्ध, तर्पण, दान, संकल्प के साथ ही चरणामृत, प्रसाद व भगवान के भोग में तुलसी का होना अनिवार्य माना गया है।
भोग में तुलसी डालने के पीछे सिर्फ धार्मिक कारण नहीं है बल्कि इसके पीछे अनेक वैज्ञानिक कारण भी हैं। तुलसी दल का औषधीय गुण है। एकमात्र तुलसी में यह खूबी है कि इसका पत्ता रोग प्रतिरोधक (Antibiotic) होता है। संभवतः भोग में तुलसी को अनिवार्य किया गया कि इस बहाने ही सही लोग दिन में कम से कम एक पत्ता ग्रहण करें ताकि उनका स्वास्थ्य ठीक रहे। इस तरह तुलसी स्वास्थ्य देने वाली है। तुलसी का पौधा मलेरिया के कीटाणु नष्ट करता है।
नई खोज से पता चलता है इसमें कीनोल, एक्सार्विक एसिड, केरोटिन और एल्केलाइड होते हैं। तुलसी पत्र मिला हुआ पानी पीने से कई रोग दूर हो जाते हैं। इसीलिए चरणामृत में तुलसी का पत्ता डाला जाता है। तुलसी के स्पर्श से भी रोग दूर होते हैं। तुलसी पर किए गए प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि रक्तचाप और पाचनतंत्र के नियमन में तथा मानसिक रोगों में यह लाभकारी है। इससे रक्तकणों की वृद्धि होती है। तुलसी ब्रहमाचर्य की रक्षक एवं त्रिदोष नाशक है। रक्तविकार वायु, खांसी, कृमि आदि की निवारक है तथा हदय के लिए हितकारी है।
कार्तिक मास तुलसी पूजन के लिए पवित्र माना गया है। वैष्णव पूजा विधान में तुलसी विवाह (Tulsi Vivah) प्रमुख पर्व है। नियमित रूप से स्नान के पश्चात ताम्र पात्र से तुलसी को प्रात:काल में जल दिया जाता है और संध्याकाल में तुलसी के चरणों में दीपक जलाते हैं।
प्रस्तुतिः हरिहरपुरी