वन विभाग कार्यालय के हॉल में शिलाओं में विभिन्न आकृतियों को उकेरा गया था। इनमें जंगली भैंसा, हांथों के प्रतीक चिन्ह, अपराजित योद्धा के चित्र, मानव, वन्य प्राणी, नृत्य की कलाकृति, नील गाय, नृत्य करता हुआ मानव, शिकार की तैयारी, शिकारियों से घबराए वन्य प्राणी, कूबड़दार बैल सहित वन्य प्राणियों के चित्र थे।
मिले संकेतों के आधारा पर ऐसा बताया गया है कि प्राचीन समय में यहां दरियाई घोड़ा भी पाया जाता रहा है। इसके अलावा युद्ध में प्रयुक्त होने वाले उपकरणों आदि के चित्र और आदमी, औरत, पेड़, फूल आदि के चित्र उपलब्ध हैं। ये शैलचित्र लगभग 10 हजार ईसा पूर्व से 4 हजार ईसा पूर्व के तथा कुछ चित्र 700 ईसा पूर्व से 200 ईसा पूर्व के हैं। लेकिन इस ओर प्रशासन का ध्यान नहीं है।
7 जुलाई 2006 को बड़वारा के मौजूदा विधायक और तत्कालीन मत्सय पालन राज्यमंत्री मोती कश्यप लारा झिंझरी स्थित 48 हेक्यटर क्षेत्र में फैले चितरंजन शैल वन, ‘ईको टूरिज्म’ का लोकार्पण किया था। तब यह निर्णय लिया गया था कि इस शैलवन को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाएगा। इसी उलेश्य से वन विभाग द्वारा बड़ी धनराशि खर्च कर यहां मनोरंजन के साथ साथ सैलानियों को आकर्षित करने को टिकट की भी व्यवस्था की गई। लेकिन धीरे-धीरेर प्रचार-प्रसार के अभाव में यह शैलवन बदहाल होता गया।
इस 48 हेक्यटर क्षेत्र वाले शैलवन को बड़े मनोयोग से भारी-भरकम धनराशि खर्च कर विकसित किया गया था, जहां एक से बढ़कर एक प्रजातियों वाले पौधो से घिरे उंची- नीची पहाड़ियों वाली इस जगह को रमणीक बनाया गया था। बच्चों व बड़ों के स्वस्थ मनोरंजन की दृष्टि से झूले, सीट शेड आदि भी लगवाए गए थे। पहाड़ियों को काट- काट कर रास्ता बनाया गया था। बेहद सुंदर कटाव वाली पहाड़ियों में अंकित शिलालेखो के देखने लोग पहुंचते थे। लेकिन वक्त के साथ सब कुछ बियाबान सा नजर आने लगा है अब।
इतिहासकारों ने बताया है कि उस समय अनेक रंगों का प्रयोग करते थे। इनमें काला, पीला, लाल, बैंगनी, भूरा, हरा और सफेद रंगों की विभिन्न रंगतें शामिल थीं। लेकिन सफेद और लाल उनके अधिक पसंदीदा रंग थे। रंग और रंजक द्रव्य विभिन्न चट्टानों तथा खनिजों को कूट-पीस कर तैयार किए जाते थे। लाल रंग, हिरमिच (जिसे गेरू भी कहा जाता है) से बनाया जाता था। हरा रंग कैल्सेडोनी नामक पत्थर की हरी किस्म से तैयार किया जाता था तथा सफेद रंग संभवतः चनूा पत्थर से बनाया जाता था।
रंग बनाने के लिए पहले खनिज की चट्टान के टुकड़ों को कूट-पीस कर पाउडर जैसा बना लिया जाता था। फिर उसमें कुछ पानी और गाढ़ा या चिपचिपा पदार्थ, जैसे कि जानवरों की चर्बी यापेड़ों से निकाला गया गोंद या राल मिला लिया जाता था। इस प्रकार रंग तैयार हो जाने के बाद उससे पेड़ की पतली रेशेदार टहनियों से बने ब्रुश का प्रयोग करते हुए चित्र आदि बनाए जाते थे। आश्चर्य की बात तो यह है कि हारों साल पहलेबनाए गए इन चित्रों के रंग हवा-पानी की मार को झेलने के बाद आज भी बरकरार हैं। यह समझा जाता है कि ये रंग अब तक इसलिए अक्षु्ण रहे क्योंकि चट्टानों की सतह पर जो ऑक्साइड मौजदू थे, उनके साथ इन रंगों की रासायनिक प्रतिक्रिया ने इन्हें स्थायी बना दिया।
बता दें कि भारत में शैल चित्रों की खोज सर्व प्रथम 1867-68 में पुरातत्वविद आर्किबोल्ड कार्लाइन ने की थी। काकबर्न, एंडरसन, मित्र और घोष पहले अनुसंधान कर्ता थे जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में ऐसे एनेक स्थल खोजे थे। इन शैलचित्रों के अवशेष वर्तमान मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और बिहार के कई जिलों में स्थित गुफाओं की दीवारों पर पाए गए हैं।
इनमें यदि मध्यप्रदेश की बात की जाए तो भोपाल के दक्षिण में 45 किलोमीटर दूर भीमबेटका को जो प्रसिद्धि मिली वह अन्य स्थानों को नहीं मिल पाई। भीमबेटका गुफाओं की खोज 1957-58 में डॉ. वीए वाकणकर ने की। बाद में भीमबेटका की गुफाओं पर अनेक अनुसंधान कर्ताओं ने अध्ययन किया। इन गुफाओं में बने शैलचित्रों में रोजमर्रा की जिंदगी की घटनाओं के अलावा धार्मिक दृश्य भी चित्रित किए गए हैं। इनमें शिकार, नृत्य, संगीत, हाथी-घोड़ो की सवारी, जानवरों की लड़ाई, शहद एकत्र करने की गतिविधियां हैं। वैसा ही यह स्थान है लेकिन प्रशासनिक उदासीनता में झिंझरी के शैलाश्रय वह ख्याति व संरक्षण नहीं हासिल कर सका।