खुद कूदे गर्म कड़ाहे में
बिलहरी में नौंवी एवं दसवीं शताब्दी के अवशेष विखरे पड़े हैं। खंडहर महल व देवस्थानों के साथ चंडी माता का वह मंदिर भी है, जिसमें राजा कर्ण रोज पूजन किया करते थे। स्थानीय जयप्रकाश पाण्डेय के अनुसार किंवदंति है कि मां चंडी राजा कर्ण की उपासना से इतना प्रसंन्न थीं कि प्रतिदिन उन्हें ढाई मन सोना देतीं थी। राजा कर्ण सूर्योदय से पूर्व चंडी देवी के मंदिर जाते थे जहां विशाल कड़ाहे में तेेल उबलता था, जिसमें राजा कर्ण कूद जाते थे और उनका मांस भक्षण करने के बाद देवी उन पर अमृत छिड़क कर उन्हें जीवित करती थीं और ढाई मन सोना प्रदान करती थीं। देवी से प्राप्त सोने में से करीब सवा मन सोना, राजा कर्ण सुबह गरीबों को दान में दिया करते थे। ये राजा कर्ण द्वापर युग के कर्ण से अलग थे। इनमें नाम की समानता तो थी है, ये भी महाभारत काल के दानवीर कर्ण की तरह ही दानी थे।
वेश बदलकर पहुंचे विक्रमादित्य
बिलहरी निवासी कोदूपुरी गोस्वामी के अनुसार बुजुर्ग बताते थे कि राजा प्रतिदिन सवा मन सोना दान किया करते थे। यह सभी के लिए एक रहस्य था कि उनके पास इतना सोना आता कहां से है। यह बात उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य के पास भी पहुंची। वे भेष बदलकर बिलहरी पहुंचे। यहां पर उन्होंने एक वृद्धा को परेशान देखा और कारण जाना। यह बुढिय़ा माई के नाम से प्रसिद्ध थी। वह पत्थर की चक्की में अनाज पीसते हुए हमेशा रोया करती थी, जिसका कारण था उसके बेटे का गायब होना। विक्रमादित्य ने जब इसकी पड़ताल की तो पता चला कि बुढ़ी माता का बेटा राजा कर्ण की सेवा में है। उसे ढ़ूंढते हुए विक्रमादित्य ने वेश बदलकर राजा कर्ण की राजधानी पहुंचे और बेटे की तलाश शुरु की।
कई दिनों तक की थी जासूसी
बिलहरी निवासी बालकृष्ण चौरसिया के अनुसार कथा है कि महाराजा विक्रमादित्य ने बुढिय़ा माई के पुत्र उत्तेजनाथ की तलाश कई दिनों तक की। विक्रमादित्य को यह बात पता चली कि उत्तेजनाथ राजा कर्ण का चौकीदार है जो हमेशा उनके साथ रहता है। राजा ने बुढिय़ा माई के पुत्र को मुक्त कराते हुए उसे सौंपा। लेकिन जब विक्रमादित्य ने राजा कर्ण के प्रभाव को देखा तो वे हैरान रह गए और सोना दान करने के रहस्य का पता लगाने लगे। कई दिनों तक विक्रमादित्य ने जासूसी कराई और फिर रहस्य को उजागर किया।
विक्रमादित्य ले गए अक्षय पात्र
इतिहासकार डॉ. एसबी भारद्वाज बताते हैं कि महाराजा विक्रमादित्य स्वयं तेजस्वी, न्यायप्रिय और दानी थे। जैसे ही उन्हें पता चला कि राजा कर्ण को देवी मां वह सोना एक अक्षय पात्र में से देती हैं, तो महाराजा विक्रमादित्य ने उसे उठा लिया। महाराजा होने के कारण उस पर अपना अधिकार मानकर वे उसे अपने साथ ले गए। उसका उपयोग भी किया। उल्लेखनीय है कि विक्रमादित्य के शासनकाल तक भारत में इतना सोना था कि यहां के लोग सोने के बदले तक वस्तु विनिमय करते थे।
उपेक्षित है राजा कर्ण की राजधानी
राजा कर्ण की राजधानी कहलाने वाले बिलहरी नगर का हर पत्थर इसके गौरवशाली अतीत की बानगी है। कई स्थल अब भी हैं, लेकिन देखरेख के अभाव में जर्जर हो चुके हैं। बिलहरी की कलाकृतियां, पुरावशेष, किले और स्मारकों की सुंदरता भी खतरे में है। स्थानीय जनों का कहना है कि पुरातत्व विभाग और प्रशासन के अफसर बेहद उदासीन है। उनकी निष्क्रियता की वजह से यह ऐतिहासिक स्थल उपेक्षित है। जनप्रतिनिधि भी ध्यान नहीं दे रहे हैं। यदि इसका संरक्षण हो जाए तो यह प्रदेश के लिए एक अनूठा पर्यटन स्थल बन सकता है।