ऐसे तैयार हुआ मंदिर
मंदिर समिति महेश पाठक ने बताया कि मालगुजार की पत्नियां भगवान श्रीकृष्ण को पुत्र व राधारानी को पुत्रवधु मानती थीं। जिसके चलते वर्ष 1915 में मंदिर का निर्माण प्रारंभ कराया गया, जो 9 वर्ष बाद 1924 में पूर्ण हुआ। दो वर्ष 1926 में मंदिर में प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा कराई गई। पाठक ने बताया कि उस दौरान मंदिर के निर्माण में 15 हजार रुपए और उसके साथ मालगुजार को गांव से मालगुजारी के रूप में मिलने वाला 11 साल का अनाज लगा था। बुजुर्गों ने बताया कि स्थापना के दो वर्ष बाद 1928 के भादों माह में सात दिन तक लगातार बारिश हुई थी और उस दौरान लोगों को तीन दिन व तीन रात बांसुरी की धुन सुनाई दी थी।
जन्माष्टमी पर उमड़ा सैलाब
मंदिर में साल भर पर्व के समय विविध आयोजन होते आ रहे हैं तो जन्माष्टमी पर्व पर सैकड़ों श्रद्धालुओं को हुजूम उमड़ता है। गांव के बुजुर्ग एपी चतुर्वेदी, रवि मिश्रा बताते हैं कि मंदिर के निर्माण में लगाए गए पत्थरों की नक्कासी और उन्हें आकर्षक रूप देने का कार्य बिलहरी के कलाकार बादल खान ने की थी। जिनकी कला को आज भी लोग सराहते हैं। इसके अलावा उनका सहयोग बिलहरी के सरजू बर्मन व भिम्मे नाम के कारीगरों ने किया था। बुजुर्गों ने बताया कि मंदिर में लगा पूरा पत्थर सैदा गांव से आया था और एक ही बैलगाड़ी से उनको ढोया गया। बुजुर्गों ने बताया कि मंदिर निर्माण कार्य पूरा होते ही बैलगाड़ी में जोते जाने वाले भैंसे ने मंदिर की सीढिय़ों में ही दम तोड़ दिया था।
अद्भुत है कृष्णलीला
काफी लोग सोचते हैं कि कृष्ण भगवान ने बहुत युद्ध किए। बहुत सारे लोगों को मार दिया, उनकी सोलह हजार रानियां थी, वे राजसी ऐश्वर्यवाला जीवन जी रहे थे, इत्यादि। ऐसी परिस्थिति में उन्हें कैसे भगवान माना जाए? पूरी दुनिया में लोग क्यों उनकी श्रद्धा से भक्ति करते हैं? वास्तव में भगवान (मतलब आत्मा) कृष्ण रुप में थे। दूसरे शब्दों में वे आत्म ज्ञानी थे। वे हमेशा निज स्वरुप की जागृति में रहते थे मैं शुद्धात्मा हूँ और ये देह अलग है। भौतिक रूप से संसार के हर कार्य में उपस्थित रहने के बावजूद कृष्ण भगवान हमेशा मैं किसी भी कार्य का कर्ता नहीं हूँ। उनकी हजारों रानियां थी और वे राजसी जीवन व्यतीत कर रहे थे फिर भी वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। उन्हें हमेशा ये लक्ष्य में रहता था कि वे कर्मों से भाग नहीं सकते और जागृति में रहकर कर्मफल को भुगतना ही सही तरीका है।