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दूसरे के घरों को रोशन करने वाले कुम्हारों की जिंदगी में है अंधेरा

locationकौशाम्बीPublished: Nov 04, 2018 10:07:32 pm

Submitted by:

Ashish Shukla

आधुनिकता के चलते दियों का धंधा पड़ा कमजोर, इलेक्ट्रॉनिक झालरों की चकाचौंध हावी

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आधुनिकता के चलते दियों का धंधा पड़ा कमजोर, इलेक्ट्रॉनिक झालरों की चकाचौंध हावी

कौशांबी. दीपावली के पर्व पर हजारों-लाखों घरों को रोशनी से जगमग करने वाले कुम्हारों की जिंदगी मे आज भी अंधेरा ही अंधेरा है| आधुनिकता की चकाचौंध ने कुम्हारों के सामने जीवन यापन का संकट खड़ा कर दिया है| हाड़तोड़ मेहनत व अपनी कला के चलते मिट्टी के दीये व दूसरे बर्तन बनाने वाले कुम्हारों को आज दो वक्त की रोटी के लिए परेशान होना पड़ रहा है|
दीपावली के समय जो कुम्हार दम भरने की फुरसत नहीं पाते थे वही आज मिट्टी के चंद दीये बना आस-पास के बाजार मे बेचने के लिए जाते है, वहाँ भी पूरे दीये बिक जाये इस बात की आशंका बनी रहती है| बाजार मे दीयों की जगह आधुनिक तरह की तमाम रंग बिरंगी बिजली की झालरों ने ले लिया है| मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों के सामने समस्या ही समस्या मुँह बाए खड़ी है|
दीये व दूसरे बर्तन बनाने के लिए गाँव के जिन तालाबों से ये कुम्हार मिट्टी निकलते थे उस पर अब लोगों को आपत्ति है| सरकार से भी किसी तरह की मदद इनको नहीं मुहैया हो पाती है| मिट्टी के बर्तन बनाकर परिवार चलाने वाले कुम्हारों के तमाम परिवार आज भी मिट्टी के टूटे-फूटे घरों मे रहने को विवश हैं| इन्हे इस बात का मलाल है कि उन्हे न तो जनप्रतिनिधि और न ही शासन से कोई मदद मिल रही है|
गोल-गोल घूमते पत्थर के चाक पर मिट्टी के दीये बनाते इन कुम्हारों की अंगुलियों मे जो कला है वह दूसरे लोगों मे शायद ही हो| घूमते चाक पर मिट्टी के दीये व दूसरे बर्तन बनाने वाले इन कुम्हारों की याद दीपावली आने से पहले हर शख्स को आ जाती है| तालाबों से मिट्टी लाकर उन्हे सुखाना, सूखी मिट्टी को बारीक कर उसे छनना और उसके बाद गीली कर चाक पर रख तरह तरह के बर्तन व दीये बनाना इन कुम्हारों की जिंदगी का अहम काम है|
इसी हुनर के चलते कुम्हारों के परिवार का भरण पोषण होता है| पत्थर के चाक पर गिली मिट्टी को आकार देने वाले कुमारों के हाथों की उंगलियों मे मानों जादू होता है| देखते ही देखते मिट्टी को आकार देना इनका पुश्तैनी काम अब इन्हे नहीं भा रहा है, क्यो कि बाजार मे प्लास्टिक के सामानों की भरमार हो गई है| चाय की दुकान से लेकर मीठे पकवानों के दुकानों मे प्लास्टिक के बर्तनों ने जगह बना लिया है| मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों को दिन भर मेहनत के बाद चंद रूपये ही हांथ मे आ पाते है| इसके अलावा कुम्हार जिन तालाबों से मिट्टी निकलते थे उस पर अब ग्राम प्रधानों ने बन्दिशें लगा दिया है| ऊपर से शासन भी इनका साथ नहीं दे रहा है| जनप्रतिनिधियों की बेरुखी इन्हे और भी रुलाती है|
एक जमाना था जब दीपों का त्योहार दीपावली आती थी तो कुमहरों की दिनचर्या ही बदल जाती थी| दीपावली आने से महीनों पहले कुम्हार पूरे परिवार के साथ मिलकर दीये तैयार करने मी जुट जाते थे| कुम्हारों को साल भर रोशनी के पर्व का इंतजार रहता था| आखिर इंतजार भी क्यों न रहे, यही त्योहार उनकी मेहनत के बदले उन्हे खुशियाँ देता था| दीये बनाने से जो कमाई होती थी उससे साल भर पूरे परिवार का खर्च आराम से चलता था| समय बदला और हर कोई आधुनिकता के रंग मे रंगने लगा| आधुनिकता की सबसे बड़ी मार यदि किसी को पड़ी है तो वह कुम्हार ही है|
मिट्टी के दीये व दूसरे बर्तन बनाकर जीवन यापन करने वाले कुम्हारों का पुश्तैनी काम अब मंदा पद गया है| आधुनिक बाजार मे अब प्लास्टिक व दूसरी चकाचौंध करने वाले सामानों ने ले लिया है| दीयों की जगह अब रंग बिरंगी झालरों से लोगों के घर रोशन हो रहे है| इतना सब होने के बाद भी कुम्हार दीपावली के समय याद जरूर आते है|

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