कौशाम्बी. रणविजय निषाद ने जब कौशाम्बी जिले के कड़ा ब्लॉक अन्तर्गत कंथुवा गांव के प्राथमिक विद्यालय में नौकरी शुरू की तो वहां महज नौ बच्चे ही पढ़ने आते थे। कुछ दिनों तब उन्होंने इतने ही बच्चों को पढ़ाया, पर यह उनकी आत्मा पर बोझ की तरह था कि जिस स्कूल में वह पढ़ाते हैं वहां छात्रों के नाम पर महज नौ बच्चे ही हैं।
इसकी वजह स्कूल के दूसरे कर्मचारियों से पूछी तो वहां से निराश करने वाला जवाब मिला। बावजूद इसके रणविजय ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपनी जिम्मेदारी समझी और खुद गांव में जाकर बच्चों को स्कूल लाने का काम शुरू किया, शुरू में असफलता हाथ लगी पर वो मायूस नहीं हुए।
मेहनत रंग लायी और करीब डेढ़ साल में ही सूरत बदल गयी। आज कंथुआ प्राथमिक विद्यालय में 99 बच्चे पढ़ने आते हैं। वह उन बच्चों को न सिर्फ पढ़ाते हैं बल्कि उन्हें कॉपी-किताब और ड्रेस तक उपलब्ध करा रहे हैं। उन्होंने न सिर्फ कंथुआ बल्कि कई गांवों के करीब पांच सौ लोगों को प्रोत्साहित कर उन्हें स्कूलों तक पहुंचवाने का काम किया है।
रण विजय निषाद उन लोगों में हैं जो काम को अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। उनके लिये नौकरी सिर्फ कांट्रैक्ट में तय घंटे तक स्कूल में बिता लेना भर नहीं। काम जब दिल के करीब हो तो उससे प्यार हो जाता है। शाद इसीलिये उन्होंने तीन बड़ी नौकरियां छोड़कर मास्टरी कर ली।
परिषदीय शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाते हुए शिक्षण व्यवस्था में उन्होंने मामूली बदलाव कर बच्चों में पढ़ने की ललक पैदा करने का काम भी किया है। इसके लिये उन्होंने बच्चों के मां-बाप को समझाने में अपने शब्द भंडार से शायद सबसे अच्छे शब्द निकाले हों। आज हालत ये है कि शिक्षक के प्रयास से गांव के तमाम लोग खुश हैं। जो गांव के तमाम लोग खुश हैं और उनका गुणगान करते नहीं थकते। छात्रों के अभिभावक उनकी पढ़ायी से खुश हैं तो शिक्षक रणविजय अपनी मेहनत की सफलता से।
रणविजय निषाद ने बताया कि उन्होंने जब स्कूल में ज्वाइन किया तो छठीं से आठवीं तक की कक्षा में महज नौ बच्चे ही पढ़ने आते थे। गांव के लोग सरकारी स्कूल में अपने बच्चों को भेजने को तैयार नहीं थे। जो लोग सक्षम थे, वह अपने बच्चों को दूर-दराज के स्कूल में बच्चों को पढ़ने भेजते थे। पर जो आर्थिक रूप से कमजोर थे वह बच्चों को नहीं पढ़ा पाते थे। हमारी नौकरी केवल हमारे भरण पोषण का जरिया मात्र नहीं, यह हमारा कर्तव्य भी है, जिसे निभाना अति आवश्यक है।