शादी-ब्याह के गीत गाते हुए उन्होंने ‘द्वारे पे आई बरात, रंगीला बन्ना ब्याहन आया, नखरेदार बन्नो आई पिया, मची है धूम शादी की शहर में किसकी शादी है’ की प्रस्तुति दी।
हजरत अमरी खुसरो की स्मृति में बेटी की विदाई का 700 साल पुराना गीत ‘भैया को दीनो महला, हमको दीनो परदेश, अरे बाबुल मोहे काहे को ब्याही विदेश’ सुनाया तो ये सीधे श्रोताओं के मन को छुआ। कजरी में उन्होंने ‘अरे चाहे भैया रूठे, चाहे जाए, सबनवा में नहीं जाईबे ननदीÓ और दादरा में ‘जमुनिया की डार में तोड़ लाई राजाÓ सुनाई।
मुखर रही हूं, मुखर हूं, कलाकार को मुखर होना भी चाहिए
? लोक कला का क्या भविष्य मानते हैं, क्योंकि वर्तमान में अलग तरह का संगीत चलन में है?
– अच्छा समय है। सब तरह का संगीत सुना जा रहा है। तकनीक का लाभ ये हुआ कि ठेकेदारी खत्म हुई। ठेकेदारी से आशय ये है कि ग्रामीण संगीत आकाशवाणी-दूरदर्शन को छोड़ और किसी तरह से रूबरू नहीं हो पाता था। संगीत हमेशा अपना स्वरूप बदलता है। सभ्यता की तरह इसकी भी एक यात्रा है। मैंने जो सुनाया, ये आदम संगीत है। शाश्वत है। अपने व आयातित संगीत के बीच हम कवच की भूमिका निभाने की कोशिश कर रहे हैं।
– फ्यूजन अब निकला है, ये कहने की गलत परंपरा चल निकली है। फ्यूजन हमेशा से था। आपने हारमोनियम को ही अपना भारतीय साज मान लिया, ये फ्यूजन है। वायलिन यूरोप का साज है, इसे कनार्टक संगीत का सशक्त साज माना जाता है। एक समय तानपुरे पर गाते थे, हारमोनियम के बिना आज कोई संगीत नहीं हो सकता। 60 साल पहले किशोर दा ने इना, मीना, डीका की प्रस्तुति दी। हमेशा से प्रयोग हुए हैं। सुलझे, सुरीले, हदों में होते हैं तो सब प्रयोग सर्वमान्य हैं। संगीत-गीत को समझे बगैर प्रयोग पर आपत्ति।
– मुखर रही हूं, मुखर हूं। मुझे लगता है कलाकार को मुखर होना भी चाहिए। क्योंकि हमारी पहचान है क्या- राष्ट्र। भारतीय हितों से कहीं समझौता नहीं। कला के प्रति सच्चाई निर्भीक भी बनाती है। युवा पीढ़ी सारे संगीत सुने, सीखने की कोशिश करें।