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मुखर रही हूं, मुखर हूं, कलाकार को मुखर होना भी चाहिए : लोकगायिका मालिनी अवस्थी

locationखंडवाPublished: Sep 21, 2019 01:49:15 pm

लोकगायिका मालिनी अवस्थी ने बांधा समां…हजरत अमीर खुसरो की स्मृति में बेटी की विदाई का 700 साल पुराना ‘अरे बाबुल मोहे काहे को ब्याही विदेश’ ने श्रोताओं के मन को छुआ, नवरात्र में मां को समर्पित गीत से किया आगाज, ‘भरत भाई..’ से समापन।

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खंडवा. ‘झुक जाईबो रघुबीर, ललिनी मेरी छोटी है, बारह बरस की मोरी जानकी, अरे सत्रह बरस के हैं रघुबीर, ललिनी मेरी छोटी है।’ भगवान राम और जानकी के विवाह प्रसंग का ये गीत जब प्रख्यात गायिका पद्मश्री मालिनी अवस्थी के खनकते कंठ से गूंजा तो सभागार में तालियों की गडगड़़ाहट छा गई।
मौका था शहर के गौरीकुंज सभागार में आयोजित लोक गायन के जलसे का। डॉ. सीवी रमन विश्वविद्यालय, वनमाली सृजन पीठ तथा टैगोर विश्वकला व संस्कृति केंद्र की साझा पहल पर हुए कार्यकम में लोकगायिका मालिनी अवस्थी ने कई रंग भरे। उन्होंने नवरात्र में मां को समर्पित गीत ‘उड़ी जाओ री सोना गंगा पार’ की प्रस्तुति से आगाज किया। सोहर गीत ‘राजा दशरथजी के घर मा आज जन्में ललनवा गीत ने माहौल को खुशनुमा बना दिया।’ इससे पहले सोहर की पंक्तियां पेश की, जिसमें दादी, चाची और गांव के पुरखिने परिवार को सीख दी थीं। राम के जयकारों से भी सभागार गूंजा। अंतिम प्रस्तुति तुलसीदासजी की रचना ‘भरत भाई कपि से उऋण हम नाही, सो योजन मर्यादा समुद्र को लांघ गयो क्षण माही…’ की दी। बता दें कि 15 साल बाद अवस्थी यहां दूसरी बार आईं। इससे पहले भी गौरीकुंज सभागार में ही प्रस्तुति दी थी। उन्होंने कहा कि यहीं से मेरी शुरूआत हुई थी, आशीर्वाद ने असर दिखाया। जिसके बाद मुझे पद्मश्री मिला। कुलपति अमिताभ सक्सेना ने स्वागत किया। विधायक देवेंद्र वर्मा, कलेक्टर तन्वी सुन्द्रियाल, एसपी डॉ. शिवदयाल सिंह, निगमायुक्त हिमांशु सिंह सहित अन्य मौजूद थे। संचालन विनय उपाध्याय ने किया।
‘द्वारे पे आई बरात…’
शादी-ब्याह के गीत गाते हुए उन्होंने ‘द्वारे पे आई बरात, रंगीला बन्ना ब्याहन आया, नखरेदार बन्नो आई पिया, मची है धूम शादी की शहर में किसकी शादी है’ की प्रस्तुति दी।
कजरी-दादरा में ये प्रस्तुति
हजरत अमरी खुसरो की स्मृति में बेटी की विदाई का 700 साल पुराना गीत ‘भैया को दीनो महला, हमको दीनो परदेश, अरे बाबुल मोहे काहे को ब्याही विदेश’ सुनाया तो ये सीधे श्रोताओं के मन को छुआ। कजरी में उन्होंने ‘अरे चाहे भैया रूठे, चाहे जाए, सबनवा में नहीं जाईबे ननदीÓ और दादरा में ‘जमुनिया की डार में तोड़ लाई राजाÓ सुनाई।
पत्रिका इंटरव्यू…
मुखर रही हूं, मुखर हूं, कलाकार को मुखर होना भी चाहिए
? लोक कला का क्या भविष्य मानते हैं, क्योंकि वर्तमान में अलग तरह का संगीत चलन में है?
– अच्छा समय है। सब तरह का संगीत सुना जा रहा है। तकनीक का लाभ ये हुआ कि ठेकेदारी खत्म हुई। ठेकेदारी से आशय ये है कि ग्रामीण संगीत आकाशवाणी-दूरदर्शन को छोड़ और किसी तरह से रूबरू नहीं हो पाता था। संगीत हमेशा अपना स्वरूप बदलता है। सभ्यता की तरह इसकी भी एक यात्रा है। मैंने जो सुनाया, ये आदम संगीत है। शाश्वत है। अपने व आयातित संगीत के बीच हम कवच की भूमिका निभाने की कोशिश कर रहे हैं।
? लोग संगीत के साथ फ्यूजन आया, इसे कैसे देखती हैं?
– फ्यूजन अब निकला है, ये कहने की गलत परंपरा चल निकली है। फ्यूजन हमेशा से था। आपने हारमोनियम को ही अपना भारतीय साज मान लिया, ये फ्यूजन है। वायलिन यूरोप का साज है, इसे कनार्टक संगीत का सशक्त साज माना जाता है। एक समय तानपुरे पर गाते थे, हारमोनियम के बिना आज कोई संगीत नहीं हो सकता। 60 साल पहले किशोर दा ने इना, मीना, डीका की प्रस्तुति दी। हमेशा से प्रयोग हुए हैं। सुलझे, सुरीले, हदों में होते हैं तो सब प्रयोग सर्वमान्य हैं। संगीत-गीत को समझे बगैर प्रयोग पर आपत्ति।
? देश में एक तबका अवॉर्ड वापसी के रूप में, धारा 370 पर बदलाव पर विरोध करता रहा है। इन पर आप मुखर रही हैं, क्या कहेंगी?
– मुखर रही हूं, मुखर हूं। मुझे लगता है कलाकार को मुखर होना भी चाहिए। क्योंकि हमारी पहचान है क्या- राष्ट्र। भारतीय हितों से कहीं समझौता नहीं। कला के प्रति सच्चाई निर्भीक भी बनाती है। युवा पीढ़ी सारे संगीत सुने, सीखने की कोशिश करें।
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