दूसरों की प्यास बुझाने के लिए इस शहर ने अपने आप को नर्मदा नदी को समर्पित कर दिया था। इस शहर के लोग आसपास के जिलों से लेकर दुनिया के कोने-कोने में पहुंच गए, लेकिन उनकी यादें उनके बचपन के शहर से जुड़ी हुई है। नर्मदा घाटी के अधिकारी सुनील पारे और प्राइवेट कंपनी में कार्यरत अरविंद शर्मा उन लोगों में से हैं, जो 17 साल पहले हरसूद (Harsud) में रहते थे। यह लोग हर साल 30 जून को अपने हरसूद को याद करते हैं। वे हरसूद की पुरानी तस्वीरों के साथ अपने बचपन, स्कूल, खेल का मैदान, मंदिर, गलियों की यादों में खो जाते हैं।
1974 में हरसूद के आदर्श स्कूल से 8वीं करने वाले सुनील पारे कई सालों तक वहीं पर नर्मदा घाटी विभाग में इंजीनियर रहे। वे अब भोपाल में कार्यरत हैं। वे कहते हैं कि यहां के स्कूल में उस समय ग्रामीण बच्चों के लिए छात्रवृत्ति मिलती थी, जो आगे बढ़ने की प्रेरणा देती थी। यहां हमने अपने जीवन का अमूल्य समय बिताया है, घर-परिवार के साथ ही वहां बिताया बचपन, शिक्षकों और मित्रों को आज भी नहीं भूले।
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अरविंद शर्मा की फेसबुक वॉल से
आज से 17 साल पहले आज ही का दिन था। 30 जून 2004. जब हमने अपने प्यारे शहर हरसूद को हमेशा-हमेशा के लिए माँ नर्मदा की उतंग लहरों को सौंप दिया था।
हरसूद हमारे लिए बचपन का मीत, शिक्षा की पाठशाला, युवावस्था का अल्हड़पन, रिश्तों का तानाबान ही नहीं, बल्कि हम आज जहां कहीं भी हैं, जैसे भी हैं उसकी जड़ें आज भी मेन रोड, टेकरा मोहल्ला, किशनपुरा, घोसी मोहल्ला, गड़ी, जीन मोहल्ला, राम मंदिर रोड़, काशिव डॉक्टर की गली, गांधी चौक, सिविल लाइन से लेकर स्टेशन तक फैली हुई है। इन जड़ों को मां नर्मदा का पावन जल निरंतर सींच रहा है। पोषण कर रहा है।
इन 17 वर्षों में हरसूद का वह वैभवशाली स्वरूप धरती पर भले ही नजर नहीं आ रहा है, परन्तु जड़ें अंदर ही अंदर आज भी अमरबेल की तरह जीवटता के साथ सजीव है। प्रकृति ने भले ही हमसे हमारी बहुमूल्य विरासत छीन ली हो, परन्तु हरसूद की सभ्यता, संस्कृति, भाई-चारा, सौहार्द, रिश्ते-नाते, उत्साह, उमंग, अपनापन आज भी हर हरसूदवासी की रगों में उसी आवेग से दौड़ रहे हैं। जितना 17 वर्ष पहले दौड़ता था।
हरसूद के हर बाशिंदे के सपने में आज भी बावड़ी की घिरनियों की गड़गड़ाहट, बोड़म और नन्हें की बैंगियों की कदमताल, श्रावण सोमवार पर शिवालयों की घंटियों की नांद, तांगों की चहल-पहल, डोल ग्यारस की रेलमपेल, रात ठीक 9 बजे राममंदिर से गूंजती आरती की स्वर लहरी, बेसिक शाला, हाईस्कूल, बस्तिशाला के रास्ते, कमल टॉकीज का रूपहला पर्दा, दाना बाबा की जय का उदघोष आज भी हरसूद के सपने से जगा देता है। हरसूद न डूबा है, न उजड़ा है, न विस्थापित हुआ है। हरसूद आज भी हम सब में आबाद है। जिंदा है। हराभरा है।
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उजड़े आशियाने के साथ सेल्फी
17 साल पहले सलोनी 6 साल की थी। दो साल पहले सलोनी अपने पति चिराग के साथ अपने पूर्वजों के घर पहुंची थी, जब पूरा इलाका बारिश में जलमग्न रहता है। हरसूद की बरसी से एक दिन पहले वो अपने उजड़े हुए घर पहुंची थी और पति चिराग के साथ सेल्फी लेकर यादें लेकर गईं। सलोनी की तरह ही ऐसे कई लोग हैं, जो अपनी यादों को आज भी समेटकर रखना चाहते हैं। कई ऐसे बच्चे भी हैं, जिनका बचपन हरसूद की गलियों में बीता है। वो आज बड़े हो गए हैं, लेकिन उनकी यादों से यहां का नजारा हटता नहीं। वो उन्हें एक बार उजड़े हुए शहर की ओर खींच ही लाता है। वे उजड़े हुए इस शहर में से अपनी सुखद यादें टटोलने का प्रयास करते देखे जा सकते हैं।
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700 वर्षों पुराना है इसका इतिहास
13वीं शताब्दी के आसपास राजा हर्षवर्धन ने हरसूद को बसाया था। हर्षवर्धन के कार्यकाल में हरसूद राज्य की राजधानी भी था। अब यह नर्मदा नदी के पानी में पूरी तरह से डूब चुका है। इसमें समा गई हैं वो सभी तस्वीरें, जो हरसूद से विस्थापित हुए लोगों के जेहन में आज भी जीवित हैं।
जिस घर से बारात लेकर गए थे, लौटे तो वह वीरान था
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नए हरसूद (छनेरा) पांच हजार लोगों को बसाने की योजना थी, लेकिन करीब 23 सौ परिवार ही पहुंचे। लोगों को सपना दिखाया गया था कि छनेरा को चंडीगढ़ की तर्ज पर बसाया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो काफी लोग अलग-अलग शहरों में बस गए। लोगों को मकान के स्थायी पट्टे भी नहीं दिए गए।
सवा लाख लोगों को शिफ्ट किया गया था
डूब क्षेत्र में आने से पहले हरसूद में सवा लाख से अधिक लोग रहते थे। इन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। यह एशिया का अब तक का सबसे बड़ा विस्थापन कार्य माना जाता है। इस डूब में हरसूद के साथ ही आसपास के 250 गांव भी डूब में आ गए थे।
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भोपाल से 200 किमी दूर था हरसूद
हरसूद कस्बा राजधानी भोपाल से 200 किलोमीटर दूर था। डैम के डूब क्षेत्र में आने के कारण इस कस्बे के लोग छनेरा, खिरकिया, हरदा, खंडवा, इंदौर और भोपाल तक बसते चले गए।
हरसूद .. एक जीता जागता शहर जो एक बांध के लिए बन गया इतिहास
दुनियाभर में हुआ था विरोध
हरसूद के डूबने के लिए नर्मदा पर बने इंदिरा सागर बांध और सरदार सरोवर बांध जिम्मेदार माने जाते हैं। इन बांधों के कारण ही यह कस्बा लुप्त हो गया है। 31 जनवरी 1989 को सरदार सरोवर बांध बनने का विरोध भी हुआ था। इसमें पर्यावरण के लिए काम करने वाले मेघा पाटकर, बाबा आमटे, सुंदरलाल बहुगुणा, स्वामी अग्निवेश, शबाना आजमी और शिवराम कारन्त ने भी विरोध किया था।