चिकित्सालय में किशनगढ़ सहित अजमेर, जयपुर और नागौर जिले से सड़क दुर्घटनाओं में घायल और बीमार गायें लाई जाती हैं। लोगों के एक फोन पर चिकित्सालय की एम्बुलेंस उन्हें लेने पहुंच जाती है। इनमें कई गाय मर भी जाती हैं। उनके बछड़े बहुत छोटे होते है। वे पूरी तरह अपनी मां पर ही आश्रित होते है, चूंकि चिकित्सालय में दूध देने वाली गायें नहीं होती, इसलिए ऐसे बछड़ों का पालन पोषण करना चुनौतीपूर्ण होता है। ऐसे में बछड़ों को बोतल से दूध पिलाया जाता है। बछड़ों के केयर टेकर अशोक कुमार हाथों में दूध की भरी बोतलें लेकर जैसे ही बाड़े में जाते हैं, बछड़ों में उनकी ओर बढऩे की होड़ मच जाती है। वे एक-एक करके बोतल से सभी बछड़ों को दूध पिलाते हैं। हरीश मौर्य ने बताया कि बछड़ों की उम्र दो महीने होने के बाद उन्हें बारिक चारा और लापसी खिलाना शुरू किया जाता है।
देते हैं मुंह में निवाला चिकित्सालय में कई गायें काफी समय से निढाल पड़ी हैं। दुर्घटना में घायल होने के कारण वे खड़ी भी नहीं हो पाती है। ऐसे गौवंश की भी पूरी देखरेख की जाती है। उन्हें हाथ से चारा और लापसी खिलाई जाती है, ताकि वह जीवित रह सके। इनमें से कई गौवंश को तो दो साल से ज्यादा समय हो चुका है।
ऑपरेशन के बाद देखरेख भी गौशाला में गौवंश गंभीर अवस्था में आते हैं। यदि किसी को कैंसर है तो उसका ऑपरेशन किया जाता है। इसके लिए अजमेर से डॉक्टर्स की टीम आती है। ऑपरेशन के बाद उनकी विधिवत देखरेख की जाती है।
फिजियोथैरेपी से कई गौवंश हुए ठीक किसी के पेट से कई किलो पॉलीथिन निकाली जाती है, तो किसी की हड्डियां दुरुस्त की जाती है। सड़क दुर्घटना में किसी की कमर और पैर टूट जाते हैं। कई तो खड़ी भी नहीं हो पाती है। इन गौवंश की फिजियोथैरेपी की जाती है। इन्हें मशीन से खड़ा किया जाता है और चलने, फिरने लायक बनाया जाता है। वर्तमान में यहां 20 गौवंश की फिजियोथैरेपी की जा रही है।
हर गाय का टोकन नंबर रखते हैं केस हिस्ट्री चिकित्सालय में आने वाली हर गाय को एक टोकन नंबर अलॉट किया जाता है। उसकी फाइल बनाई जाती है। जिसमें उसके उपचार का पूरा रिकॉर्ड रखा जाता है।