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निमित्त व उपादान से बचने का करें प्रयास : आचार्य महाश्रमण

locationकोलकाताPublished: Oct 23, 2017 09:47:37 pm

जैन आगमों में से महत्तवपूर्ण आगम है ठाणं। ठाणं पांचवें स्थान का विवेचन करते हुए आचार्य महाश्रमण

Acharya Mahasamana

कोलकाता. जैन आगमों में से महत्तवपूर्ण आगम है ठाणं। ठाणं पांचवें स्थान का विवेचन करते हुए आचार्य महाश्रमण ने रविवार को कहा कि जैन शासन में चार तीर्थ हैं। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका। चारों ही पूजनीय होते हैं।


श्रावक-श्राविकाओं के लिए साधु चाहे 9 वर्ष का और श्रावक चाहे 90 वर्ष का हो तो भी साधु पूजनीय होते हैं, क्योंकि उसने जीवनभर के लिए चारित्र स्वीकार किया है। श्रावक के लिए साधु ही पूजनीय होते हैं, वंदनीय होते हंै, सम्मानीय होते हैं। साधु-साध्वी दोनों संघ के वरिष्ठ हैं। दोनों में ही छठा व सातवां गुणस्थान होता है। दोनों के बीच एक सीमा तक संपर्क मान्य है और एक सीमा तक अमान्य है। कोई भी साधु-साध्वी अकेले किसी से बात नहीं कर सकते यह एक व्यवस्था है। इसका कारण है उपादान। राग, द्वेष का भाव निमित्त पाकर उभरता है।


निमित्त गलत मिलता है तो दोष लग जाता है। कोई भी साधु-साध्वी किसी स्त्री-पुरुष को छू नहीं सकते। इसलिए शास्त्रकार ने साधु-साध्विओं को छूने के पांच प्रकार के दोष बताए है। पहला, किसी साध्वी को कोई पशुपक्षी परेशान करना शुरु कर दे तो उसकी सुरक्षा के लिए अपेक्षा हो तो निग्रंथ यानी साधु उसको सहारा दे सकते हैं।


दूसरा, विहार में जा रहे हो तो कोई दुर्गम रास्ता आ गया, कोई साध्वी अगर गिर जाए, पदस्खलन हो जाए या गिर रही हो, ऐसी स्थिति में पास में जो साधु होगा वह उसे बचाने के लिए सहारा दे सकता है। ऐसे में उसे दोष नहीं होगा।


तीसरा, दलदल हो, काई हो, बहुत ज्यादा पानी आ जाए, साध्वी कहीं पानी में बह जाए तो उसको बचाने में सहारा दें तो साधु को दोष नहीं है। चौथा, नौका पार करना पड़े, नौका में चढऩे में, उतरने में परेशानी हो तो साधु उसको सहारा दें तो दोष का भागीदार नहीं बनता है। कोई साध्वी पागल हो जाए, यक्ष आ जाए, उपसर्ग हो जाए या अनशन करने में कमजोर हो जाए वहां भी साधु उसको सहारा दे तो दोष का भागीदार नहीं होता है। उपादान व निमित्त की बात है, इससे बचना चाहिए। गलतियों को अवसर न दें, गलत निमित्त मिले तो उस स्थान को छोड़ देना चाहिए।


साधु-साध्वी के बीच में बात करते समय तीसरा व्यक्ति चाहिए जो मूक न हो, श्रवणशक्ति सम्पन्न हो, चक्षुमान हो। साधु-साध्वी का ठहरने के लिए अलग अलग मकान होते हंै। विशेष परिस्थिति आ जाए तो एक स्थान में रह सकते हैं। श्रावक के लिए सर्वदा संतोष व्रत को धारण करना चाहिए।

यह एक सुंदर दिशानिर्देश है, सीमा भी है और अपवाद भी रखा गया है। साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने बारह व्रतों का विवेचन करते हुए कहा कि सभी श्रावक-श्राविकाओं को अपने जीवन में बारह व्रतों को धारण करना चाहिए। इनको धारण करने से हम कई तरह की हिंसात्मक प्रवृत्ति से बच सकते हैं।

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