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कोलकाता

समानांतर सिनेमा के शाश्वत शहंशाह भी बंगाल से

किरदारों के भीतर की उधेड़बुन, चरित्रों का अंर्तद्वंद जिस बेहतर तरीके से तकनीक के सहारे सत्यजीत राय ने उतारा विश्व सिनेमा में ऐसे बिरले ही उदाहरण हैं।

कोलकाताOct 11, 2018 / 07:02 pm

Paritosh Dube

satyajit ray

समानांतर सिनेमा के शाश्वत शहंशाह भी बंगाल से

– रुपहले पर्दे पर सुनहरा बंगाल
कोलकाता. बॉलीवुड की मौजूदा धारा में यर्थाथवादी चिंतन लाने का श्रेय बंगाल को ही जाता है। सत्यजीत राय बंगाल की माटी में जन्मे उन निर्देशकों की कतार में अव्वल रहे जिन्होंने मानवीय मन की परिभाषा, उसकी अभिव्यक्ति को अपने पसंदीदा 40 एमएम के लेंस से रुपहले पर्दे के लिए तैयार किया। किरदारों के भीतर की उधेड़बुन, चरित्रों का अंर्तद्वंद जिस बेहतर तरीके से तकनीक के सहारे सत्यजीत राय ने उतारा विश्व सिनेमा में ऐसे बिरले ही उदाहरण हैं। अपने सिनेमा में गीत, नृत्य जैसी प्रतिष्ठित हो चुकी सिनेमाई आवश्यक्ताओं को दरकिनार करने का साहस दिखाने वाले सत्यजीत राय ने मूल रूप से बांग्ला भाषा में ही फिल्में बनाईं। बंगाल के ग्राम्य परिवेश, शहरी भद्रलोक का सजीव और सरस चित्रण किया, जो आने वाले फिल्मकारों के लिए आज भी नजीर बना हुआ है। 20वीं सदी की महान फिल्मी शख्शियतों में शुमार सत्यजीत राय अपनी फिल्मों की छोटी सी छोटी बारीकियों पर खुद नजर रखते थे। पटकथा, पाश्र्च संगीत, संवाद, कलानिर्देशन, संपादन, फिल्मांकन जैसे अलग अलग विषयों पर सिद्धहस्त सत्यजीत फिल्म निर्माण के मिस्टर परफेक्शनिट थे। गैरजरूरी संगीत को फिल्म जैसे माध्यम से दूर करने का साहस दिखाने वाले सत्यजीत राय की फिल्मों में चरित्रों और उनके स्पेश का मौन, एकांत बेहद रंगबिरंगा होता है। यही वजह है कि आज भी निर्देशक एकांत और मौन के दृश्यों में सत्यजीत फे्र म का ही उपयोग करते हैं। 2 मई 1921 को कोलकाता में पैदा हुए सत्यजीत राय ने 40 के दशक में ब्रिटिश विज्ञापन एजेंसी से अपने करियर की शुरुआत की। 1950 में अपने लंदन प्रवास के दौरान उन्होंने सिनेमा माध्यम को करीब से देखा। कहा जाता है इस दौरान उन्होंने 99 फिल्में देखीं। जिसमें से मशहूर यर्थाथवादी इतालवी फिल्म बाइसिकिल थीफ देखकर उन्होंने फिल्मकार बनने का प्रण कर डाला। जरूरी प्रशिक्षण लिया, तकनीकी जानकारियां जुटाईं और फिल्म निर्माण के तप में खुद को झोंक दिया।
1955 में बांग्ला भाषा में आई पाथेर पांचाली के रिलीज होने के बाद ही पूरी दुनिया उनकी रचनात्मकता, फिल्म निर्माण पर उनकी पकड़ और सेल्यूलाइड माध्यम की उनकी समझ पर पूरी दुनिया कायल हो गई। जिसने भारतीय सिनेमा को विश्व जगत पर पहचान दिलाई। पाथेर पांचाली की कामयाबी के बाद उन्होंने फिल्म की कहानी को अपू त्रयी (ट्रिलॉजी)में आगे बढ़ाया।
सत्यजीत राय ने हिंदी में गिनी चुनी फिल्में ही निर्देशित की। जिनमेें से 1977 में आई शतरंज के खिलाड़ी आज भी बॉलीवुड की मील की पत्थर फिल्म कही जाती है। 1857 के अवध, वहां मौजूद राजनीतिक वातावरण पर प्रेमचंद की रचना पर आधारित फिल्म में सत्यजीत ने जान डाल दी। आम तौर पर साहित्यिक कृतियों पर हुए फिल्म निर्माण में निर्देशक परिवर्तन कर यथास्थितिवादियों के कोप का शिकार बनते हैं लेकिन सत्यजीत राय इन सभी विवादों से दूर रहे। उन्होंने साहित्यिक रचना की शुचिता का पूरी तरह सम्मान किया। आज भी शतरंज के खिलाड़ी फिल्म निर्माण की विधा सीख रहे नवजात निर्देशकों के लिए प्रारंभिक पाठशाला है।
सत्यजीत राय के सिनेमा को समय समय पर देश के साथ साथ विदेशों में सम्मानित किया जाता रहा। सिनेमा निर्माण से जुड़ी विभिन्न विधाओं के लिए 32 बार (अब तक का रिकार्ड)राष्ट्रीय पुरुस्कार जीत चुके सत्यजीत दूसरे ऐसे फिल्मकार रहे जिन्हे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने डॉक्टरेट की उपाधि दी। 1985 में दादा साहब फालके पुरुस्कार जीतने वाले सत्यजीत राय पहले भारतीय फिल्म निर्देशक बने जिन्हें 1992 में उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए ऑस्कर अवार्ड से सम्मानित किया गया। अवार्ड लेने वे विदेश नहीं गए बल्कि ऑस्कर फाउंडेशन की टीम ने कोलकाता आकर उन्हें यह सम्मान प्रदान किया।
सत्यजीत राय ने अपनी कुल जमा 37 फिल्मों से यर्थाथ को जिस सम्मोहिनी तरीके से सेल्यूलाइड में उतारा वह आज भी भारतीय समानांतर सिनेमा के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं।

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