बताया जाता है लगभग ढाई सौ साल पहले दुर्गा दालान में पहली बार पूजा का आयोजन महाराज नवकृष्ण ने किया था। उस समय, इस इलाके में एक भी पूजा नहीं होती थी। पूजा के एक महीने पहले से ही मेले का आयोजन, बाई नाच, कवि गान होता था, जिसमें सैकड़ों लोग आनन्द उठाते थे। यहां पर आने वालों में अंग्रेजों की भी अच्छी खासी संख्या होती थी।
दुर्गा का वाहन होता है अद्भुत
शोभाबाजार राजबाड़ी की दुर्गापूजा की प्रतिमा एक चाल में गढ़ी जाती है। रथ पूजा के दौरान तीन हाथ की जिस लकड़ी की की पूजा की जाती है वही मां दुर्गा की प्रतिमा के सांचे का मुख्य अंश होता है। यह सांचा भी 250 साल पुराना है। प्रतिमा में देवी का वाहन सिंह की आकृति घोड़े की तरह है और उसका रंग भी सफेद है।
मछली की होती है बलि
राजबाड़ी की दुर्गापूजा में बलि की प्रथा है पर बकरे की नहीं उसके स्थान पर गन्ना, कुम्हड़े के साथ ही मांगूर मछली की बलि दी जाती है। पहले बकरे की बलि होती थी पर राधाकान्त देब के समय से यह प्रथा बन्द कर दी गई है। तीन दिनों में कुल 9 बलि दी जाती है।
आज भी पारम्परिक तरीके से होती है पूजा
शोभाबाजार राज बाड़ी के सदस्यों ने पूजा की परम्परा का निर्वाह किया है। नियमों का पालन सभी सदस्य करते हैं। जो भी कहीं हो इस मौके पर जरूर शामिल होते है। आंगन में आल्पना सजाई जाती है वहीं देवी का श्रृंगार होता है। यहां की पूजा का खास चलन है जिसमें प्रतिमा के सामने की नीचे की ओर थोड़ी दूर में एक पात्र रखा होता है जिसमें पानी होती है। इस पानी में मां दुर्गा की झलक दिखती है। लोग देवी का दर्शन उस पानी में झांक कर भी करते हैं जिसे देवी का चेहरा साफ दिख जाता है वह उसे शुभ माना जाता है।
यही हुआ था विवेकानन्द का अभिनन्दन
इस राजबाड़ी में कई इतिहास छुपा है उसी में से एक महत्वपूर्ण पल का साक्षी है यह राजबाड़ी। शिकागों की यात्रा करके लौटने के बाद स्वामी जी का पहला सम्मान समारोह यहीं हुआ था जिसमें लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। इसकी दीवार पर आज भी वह फोटो टंगी हुई।