भारतीय धर्म संस्कृति में यह व्रत विवाहित महिलाओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना गया है, इससे सुहागिनों का सुहाग अखंड रहता है और कुंवारी कन्याओं को मनपसंद जीवनसाथी मिलता है। यह गणगौर पर्व चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है, इसे गौरी तृतीया भी कहते हैं। इस दिन कुंवारी युवतियां और विवाहित महिलाएं शिव (इसर) और पार्वती (गौरी) की पूजा करती हैं। पूजा करते हुए दूब से पानी के छांटे देते हुए गोर-गोर गोमती गीत गाती हैं। गणगौर राजस्थान में आस्था प्रेम और पारिवारिक सौहार्द का सबसे बड़ा उत्सव है। गण (शिव) तथा गौर (पार्वती) के इस पर्व में कुंवारी लड़कियां मनपसंद वर पाने की कामना करती हैं, जबकि विवाहित महिलाएं चैत्र शुक्ल तृतीया को गणगौर पूजन तथा व्रत कर पति की दीर्घायु की कामना करती हैं। माना जाता है कि माता गवरजा होली के दूसरे दिन अपने पीहर आती हैं तथा 8 दिनों बाद ईसर (शिव) उन्हें वापस लेने आते हैं। चैत्र शुक्ल तृतीया को उनकी विदाई होती है। गणगौर पूजा में गाए जाने वाले लोकगीत इस अनूठे पर्व की आत्मा हैं। इस पर्व में गवरजा और ईसर की बड़ी बहन और जीजा के रूप में गीतों के माध्यम से पूजा होती है तथा उन गीतों के बाद अपने परिजनों के नाम लिए जाते हैं। राजस्थान के कई प्रदेशों में गणगौर पूजन एक आवश्यक वैवाहिक रस्म के रूप में प्रचलित है। इस पर्व में विवाहित महिलाएं, नवविवाहिताएं प्रतिदिन गणगौर पूजती हैं तथा चैत्र शुक्ल द्वितीया (सिंजारे) के दिन किसी नदी, तालाब या सरोवर जाकर अपनी पूजी हुई गणगौरों को पानी पिलाती हैं और दूसरे दिन शाम को उनका विसर्जन कर देती हैं।