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छात्राओं को स्वामी सुबोधगिरि ने दिया गीता ज्ञान

locationकोलकाताPublished: Nov 27, 2018 09:36:10 pm

Submitted by:

Shishir Sharan Rahi

लिलुआ के अग्रसेन बालिका शिक्षा सदन में

kolkata

छात्राओं को स्वामी सुबोधगिरि ने दिया गीता ज्ञान

हावडा़. लिलुआ के अग्रसेन बालिका शिक्षा सदन में समाजसेवी और गीता प्रचारक बालकृष्ण लूडिय़ा के सान्निध्य में स्वामी संवित् सुबोधगिरि ने विभिन्न महापुरुषों के उदाहरण सहित गीता का ज्ञान सरल शब्दों और संक्षिप्त रूप में दिया। स्वामी के कदम विद्यालय में पड़े जिससे पूरा विद्यालय उल्लासित हो उठा। इस अवसर पर विद्यालय के प्राचार्य सरोज कुमार श्रीवास्तव, उपप्राचार्या काकोली नाग, शिक्षिकाएं और बड़ी संख्या में छात्राएं उपस्थित थी। उन्होंने विभिन्न महापुरूषों के उदाहरण से गीता के ज्ञान जीवन में उतारने का प्रयास करने पर जोर देते हुए कहा कि गीता के आदर्श अपने जीवन में उतारने का प्रयास करें क्योंकि गीता पाठ हमारे शारीरिक, मानसिक सहित सभी व्याधियों को उसी तरह हर लेती है जैसे हमारी माता हमारे सभी कष्टों को दूर कर हमें प्रसन्न रखती हैं। शुभारंभ विद्यालय के प्राचार्य महोदय के स्वागत भाषण से हुआ। उन्होंने महाराज का परिचय देते हुए बताया कि स्वामी गीता के प्रकांड पंडित, अध्येता है एवं कई पुस्तकों का लेखन भी किया है। ‘गीता’ के महत्व को स्पष्ट करते हुए प्राचार्य ने कहा कि गीता हमें फल की चिंता किए बिना कर्म करने का संदेश देती है। समापन स्वामी को शॉल, अंगवस्त्रम्, उपहार से सम्मानित कर किया गया।
—गीता में 18 अध्याय और 720 श्लोक
कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में कृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था वह श्रीमद्भगवदगीता के नाम से प्रसिद्ध है। यह महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है। गीता में 18 अध्याय और 720 श्लोक हैं। लगभग 20वीं सदी के शुरू में गीता प्रेस गोरखपुर (1925) के सामने गीता का वही पाठ था जो आज हमें उपलब्ध है। 20वीं सदी के लगभग भीष्मपर्व का जावा की भाषा में एक अनुवाद हुआ था। उसमें अनेक मूलश्लोक भी सुरक्षित हैं। श्रीपाद कृष्ण बेल्वेलकर के अनुसार जावा के इस प्राचीन संस्करण में गीता के केवल साढ़े इक्यासी श्लोक मूल संस्कृत के हैं। उनसे भी वर्तमान पाठ का समर्थन होता है। गीता की गणना प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र भी संमिलित हैं। अतएव भारतीय परंपरा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रों का है। गीता के माहात्म्य में उपनिषदों को गो और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या थी, उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। उपनिषदों की अनेक विद्याएँ गीता में हैं। जैसे, संसार के स्वरूप के संबंध में अश्वत्थ विद्या, अनादि अजन्मा ब्रह्म के विषय में अव्ययपुरुष विद्या, परा प्रकृति या जीव के विषय में अक्षरपुरुष विद्या और अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय में क्षरपुरुष विद्या। इस प्रकार वेदों के ब्रह्मवाद और उपनिषदों के अध्यात्म, इन दोनों की विशिष्ट सामग्री गीता में संनिविष्ट है। उसे ही पुष्पिका के शब्दों में ब्रह्मविद्या कहा गया है। गीता में ‘ब्रह्मविद्या’ का आशय निवृत्तिपरक ज्ञानमार्ग से है। इसे सांख्यमत कहा जाता है जिसके साथ निवृत्तिमार्गी जीवनपद्धति जुड़ी हुई है। लेकिन गीता उपनिषदों के मोड़ से आगे बढक़र उस युग की देन है, जब एक नया दर्शन जन्म ले रहा था जो गृहस्थों के प्रवृत्ति धर्म को निवृत्ति मार्ग के समकक्ष और उतना ही फलदायक मानता था। इसी का संकेत देनेवाला गीता की पुष्पिका में ‘योगशास्त्रे’ शब्द है। यहाँ ‘योगशास्त्रे’ का अभिप्राय निसंदेह कर्मयोग से ही है। गीता में योग की 2 परिभाषाएँ पाई जाती हैं। एक निवृत्ति मार्ग की दृष्टि से जिसमें ‘समत्वं योग उच्यते’ कहा गया है अर्थात् गुणों के वैषम्य में साम्यभाव रखना ही योग है। सांख्य की स्थिति यही है। योग की दूसरी परिभाषा है ‘योग कर्मसु कौशलम’ अर्थात् कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञानमार्गियों को मिलती है। इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है और यही गीता के योग का सार है।
गीता के दूसरे अध्याय में जो ‘तस्य प्रज्ञाप्रतिष्ठिता’ की धुन पाई जाती है, उसका अभिप्राय निर्लेप कर्म की क्षमतावली बुद्धि से ही है। यह कर्म के संन्यास द्वारा वैराग्य प्राप्त करने की स्थिति न थी बल्कि कर्म करते हुए पदे पदे मन को वैराग्यवाली स्थिति में ढालने की युक्ति थी। यही गीता का कर्मयोग है। जैसे महाभारत के अनेक स्थलों में, वैसे ही गीता में भी सांख्य के निवृत्ति मार्ग और कर्म के प्रवृत्तिमार्ग की व्याख्या और प्रशंसा पाई जाती है। एक की निंदा और दूसरे की प्रशंसा गीता का अभिमत नहीं, दोनों मार्ग दो प्रकार की रु चि रखनेवाले मनुष्यों के लिए हितकर हो सकते हैं और हैं। संसार का दूसरा कोई भी ग्रंथ कर्म के शास्त्र का प्रतिपादन इस सुंदरता, इस सूक्ष्मता और निष्पक्षता से नहीं करता। इस दृष्टि से गीता अद्भुत मानवीय शास्त्र है। इसकी दृष्टि एकांगी नहीं, सर्वांगपूर्ण है। गीता में दर्शन का प्रतिपादन करते हुए भी जो साहित्य का आनंद है वह इसकी अतिरिक्त विशेषता है। तत्वज्ञान का सुसंस्कृत काव्यशैली के द्वारा वर्णन गीता का निजी सौरभ है जो किसी भी सहृदय को मुग्ध किए बिना नहीं रहता। इसीलिए इसका नाम भगवद्गीता पड़ा, भगवान् का गाया हुआ ज्ञान।
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