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‘पंत ने देखा था लोकायतन में विश्व मानवता का स्वप्न’

locationकोलकाताPublished: Dec 01, 2018 09:50:16 pm

Submitted by:

Shishir Sharan Rahi

पुण्य तिथि पर भारतीय भाषा परिषद में कालजयी कृति विमर्श कार्यक्रम

kolkata

‘पंत ने देखा था लोकायतन में विश्व मानवता का स्वप्न’

कोलकाता. छायावाद के प्रसिद्ध हिंदी कवि सुमित्रानंदन पंत ने लोकायतन में विश्व मानवता का स्वप्न देखा था। पंत की पुण्य तिथि पर भारतीय भाषा परिषद में आयोजित कालजयी कृति विमर्श कार्यक्रम के दौरान वक्ताओं ने यह बात कही। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष और आलोचक प्रो. राजेंद्र कुमार ने कहा कि पंत प्रकृति के सुकुमार कवि ही नहीं, बल्कि मनुष्यता के विराट स्वप्न और विश्व चेतना से जुड़े हुए थे। उन्होंने कहा कि पंत ने अपने महत्वाकांक्षी काव्य ‘लोकायतन’ में गांधी में ‘जन के राम’ की खोज की और गांव को विषय बनाया। उन्होंने छायावाद के 100 साल पूरे होने पर पंत की काव्य यात्रा पर फिर से विचार करने की जरूरत बताई क्योंकि आलोचकों ने उनकी काफी उपेक्षा की थी। आरंभ में विषय प्रस्तुति करते हुए कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राजश्री शुक्ला ने ‘लोकायतन’ को भौतिक प्रगति और आध्यात्मिकता के समन्वय का काव्य कहा और इस पर अरविंद दर्शन के प्रभाव का रेखांकन किया। उन्होंने कहा कि पंत दुख और सुख के बीच सामंजस्य चाहते थे। अध्यक्षीय भाषण देते हुए डॉ. शंभुनाथ ने कहा कि पंत का लोकायतन राष्ट्रीयता, धर्म और जाति से ऊपर था। वे परिवर्तन के कवि हैं। उनका काव्य मानव हृदय का विस्तार करता है। परिषद की मंत्री विमला पोद्दार ने स्वागत किया। धन्यवाद ज्ञापित करते हुए पीयूषकांत राय ने कहा कि हिंदी के पुराने शहर कोलकाता में फिर से एक साहित्यिक माहौल और सौहार्द का वातावरण बन रहा है। संचालन मधुमिता ओझा ने किया।
—–जन्म के 6 घंटे बाद ही मां का निधन

सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म 20 मई, 1900 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा (अब बागेश्वर) कौसानी में हुआ था। हिंदी साहित्य में छायावादी युग के 4 प्रमुख स्तंभों में से एक पंत युग को जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और रामकुमार वर्मा जैसे कवियों का युग कहा जाता है। उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था। गौरवर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, सुगठित शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था। जन्म के 6 घंटे बाद ही उनकी मां का निधन हो गया और उनका लालन-पालन उनकी दादी ने किया। 1910 में शिक्षा प्राप्त करने गवर्नमेंट हाईस्कूल अल्मोड़ा गए। यहीं उन्होंने अपना नाम गोसाईं दत्त से बदलकर सुमित्रनंदन पंत रख लिया। 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के भारतीयों से अंग्रेजी विद्यालयों, महाविद्यालयों, न्यायालयों एवं अन्य सरकारी कार्यालयों का बहिष्कार करने के आह्वान पर उन्होंने महाविद्यालय छोड़ दिया और घर पर हिन्दी, संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी भाषा-साहित्य का अध्ययन करने लगे। इलाहाबाद में उनकी काव्यचेतना का विकास हुआ। कुछ वर्षों के बाद घोर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। कर्ज से जूझते हुए पिता का निधन हो गया। कर्ज चुकाने के लिए जमीन और घर भी बेचना पड़ा। इन्हीं परिस्थितियों में वह मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुये। 1938 में प्रगतिशील मासिक पत्रिका रूपाभ का सम्पादन किया। अरविन्द आश्रम की यात्रा से आध्यात्मिक चेतना का विकास हुआ। 1950 से 1957 तक आकाशवाणी में परामर्शदाता रहे। 1961 में पद्मभूषण की उपाधि से विभूषित हुये। वह जीवन-पर्यन्त रचनारत रहे। अविवाहित पंत के अंतस्थल में नारी और प्रकृति के प्रति आजीवन सौन्दर्यपरक भावना रही। उनकी मृत्यु 29 दिसम्बर 1977 को हुई।

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